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________________ संघ की महिमा जीवन में जब अध्यात्म की साधना की जाती है तो एक अद्भुत ही ज्योति अन्तर में जागृत होती हैं । उस ज्योति के आलोक में आन्तरिक शक्तियां जगमगा उठती हैं । साधारण मानव जिस बात पर बाह्य दृष्टिकोण से विचार करता है, साधक आध्यात्मिक दृष्टि से उस पर विचार करता है। अध्यात्मिक मंच से किसी बात को कहने का रूप दूसरा ही होता है । व्यवहारबादी दृष्टि से अध्यात्मवादी दृष्टि सदा विलक्षण ही रही है। अध्यात्मवादी दृष्टि सदा विलक्षण रही है। आध्यात्मवादी का दृष्टिकोण व्यवहारवादी को अटपटा भले लगे मगर पारमार्थिक सत्य उसमें अवश्य निहित होता है। बाह्य दृष्टिकोण वाला घर की सजावट, शरीर के शृंगार और भोगोप. भोग की सामग्री के अधिक से अधिक संचय पर ध्यान देता है और इसकी सफलता में अपने जीवन की सफलता समझता है, किन्तु आध्यात्मनिष्ठ साधक उन सब पर पदार्थों को भार स्वरूप समझता है । सद्गुण ही उसके लिए परम आभूषण हैं और आत्मा की विकसित एक-एक शक्ति ही उसके लिए एक-एक चिन्तामणि रत्न है । बहिरात्माओं को यह सब स्वप्न जगत् में विचरण करने जैसा प्रतीत होगा। भौतिक दृष्टि होने के कारण ये बातें उसे विश्वसनीय नहीं प्रतीत होतीं। मगर इससे क्या ? नेत्रहीन व्यक्ति यदि रूप के अस्तित्व को नहीं देख पाता तो क्या यह कहा जा सकता है कि रूप है ही नहीं ? नहीं, इसी प्रकार अवास्तविक दृष्टि में जो सत्य नहीं पाता उसे असत्य नहीं कहा जा सकता। भौतिकवादी दृष्टिकोण वाला प्राभूषण, सजावट की सामग्री, आमोदप्रमोद के साधन आदि जुटाने के लिए महारंभ करने से भी नहीं हिचकेगा।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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