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[२१३ जैन परम्परा में हठ योग को प्रश्रय नहीं दिया गया है। वह अध्यात्म की प्रधानता होने से वहाँ राजयोग ही उपादेय माना गया है। वस्तुतः हड योग रोग के उन्मूलन की दवा नहीं है, उससे रोग को सिर्फ दबाया जा सकता है। राज योग उस औषध के समान है जो रोग को समूल नष्ट कर देती है।
तो प्राचार्य भद्रबाहु ने उत्तर दिया-मैं इस समय पाटलीपुत्र के लिए प्रस्थान करने में असमर्थ हूँ, क्योंकि मैं महाप्राण ध्यान प्रारम्भ कर चुका हूँ। .. उसे अपूर्ण छोड़ देना उचित नहीं होगा, ऐसा श्री.संघ को निवेदन करना।
प्राचार्य का उत्तर सुनकर सन्त निराब होकर लौट गए। .... पाटलीपुत्र पहुँच कर उन्होंने संघ के समक्ष बतलाया-हम दोनों महामुनि भद्रबाहु की सेवा में पहुँचे । उनको संघ का आदेश कह सुनाया। उत्तर में उन्होंने निवेदन किया है कि वे महा प्राण ध्यान प्रारम्भ कर चुके हैं। . अतएव उपस्थित होने । में असमर्थ हैं । . .
- प्राचार्य सम्भूतिविजयं ने महामुनि भद्रबाहु का उत्तर सुनकर संघ के साथ विचार विमर्श किया। सोचा गया-श्रु त की रक्षा शासन की रक्षा है। आज भगवान तीर्थ कर या केवली हमारे समक्ष नहीं है । तीर्थ कर की देशना, जो श्रत के रूप में ग्रथित की हुई है, हमारा सर्वस्व है, एकमात्र निधि है। उसके अभाव में शासन टिक नहीं सकता। वह छिन्न-भिन्न हो जाएगा। सघ श्रुत पर ही टिका है और भविष्य के संघ के लिए भी यही एकमात्र आधार रहेगा । उधर प्राचार्य भद्र बाहु ने ध्यान योग प्रारम्भ किया है, यह बात भी हमें ध्यान में रखनी चाहिये । भद्रबाहु स्वामी ने नम्रतापूर्वक जो कहला भेजा है, उस पर विचार करना चाहिये और आवश्यक समझा जाय तो उसका प्रत्युत्तर भेजना चाहिये । मगर श्र तरक्षा का कार्य अवश्य सम्पन्न करना है।
उपस्थित मुनियों ने इस पर विचार किया। उनकी दृष्टि में श्र तरक्षा का कार्य सर्वोपरि था और यह उचित है । आप लोगों को भी श्रुत के संरक्षण और प्रचार की ओर ध्यान देना चाहिये । जो ऐसा करेंगे उनका इस लोक और परलोक में परम कल्याण होगा। ... .. .