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बच्चे न कुत्ता खाय' की कहावतं साधु-जीवन में पूरी तरह चरितार्थ होती है ।
आज विनियम के साधनों की सुविधा होने से संग्रह करने को वृत्ति अधिक बढ़ गई है। धनवान् या जमीदार व्यापारी स्टाक पास रख करके अकाल न होने पर भी अकाल की सी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। खाद्य पदार्थों का संग्रह करके जब दबा लिया जाता है तब लोगों को वे दुर्लभ हो जाते हैं और उनका भाव ऊंचा चढ़ जाता है। इसी उद्देश्य से व्यापारी संग्रह करता है और मुनाफा कमाता है। ऐसा करने से श्राज खाद्य समस्या बड़ी गम्भीर हो गई है और बहुत प्रसन्तोष फैल रहा है। सरकार की ओर से इस संग्रह वृत्ति पर अंकुश लगाया जाता है, फिर भी वह रुक नहीं रही। अच्छे आदर्श व्यापारी को ऐसा नहीं करना चाहिये । अनुचित मुनाफा कमाना श्रावक को शोभा नहीं देता । यह व्यापार नीति से प्रतिकूल है । व्यापारी को अपने लाभ के साथ जनता को लाभ-हानि, सुविधान्यसुविधा का भी विचार रखना चाहिये ।
हां, तो भद्रवाहस्वामी नेपाल की तराई में थे। दो साधु उन्हें बुलाने के लिए भेजे गए । दोनों सन्त उनके चरणों में जाकर प्रणत हुए। तत्पश्चात् उन्होंने निवेदन किया- भगवन् ! संघ पाटलीपुत्र में एकत्र हुआ है और श्रुत के संकलन का कार्य किया जा रहा है। किन्तु आपके बिना श्रुत संकलन पूर्ण रूप से सम्पन्न नहीं हो रहा, अंतएव ग्रापकी वहां आवश्यकता अनुभव की जा रही है | श्राप श्रवश्य पधारें । संघ श्रापकी प्रतीक्षा कर रहा है ।
- श्राचार्य भद्रबाहु ने उत्तर दिया-संघ का मैं अंग हैं, सेवक हूं । संघ का मुझ पर अपार उपकार है, किन्तु मैंने महाप्राण ध्यानयोग प्रारम्भ किया हैं। यह निवेदन आप संघ के समक्ष कर दीजिएगा ।
महाप्राण ध्यान की क्यों विधि है, क्या भूमिका, परिपाटी या स्वरूप है ? इसका उल्लेख देखने में नहीं प्राता, किन्तु 'महाप्राण' शब्द के आधार पर ही कुछ कल्पना की जा सकती है। जिस ध्यान के द्वारा प्राण को दीर्घ किया नाय प्राणवायु पर विजय प्राप्त की जाय, सम्भवतः वह महाप्राण ध्यान कहलाता हो ।