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[११ घात से ही जीवन चलेगा, ऐसा समझना भ्रम है । सावधानी के साथ चलने वाला सभी प्रागियों के प्रति समबुद्धि रख कर जीवन चला सकता है । समत्वबुद्धि ही भावकरुणा है किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना, छेदन-भेदन न करना · द्रव्य-दया है। राग-द्वेष उत्पन्न न होना भावदया है। जब अन्तःकरण में राग-द्वेष का सद्भाव नहीं होता, कषाय के विषैले अंकुर नष्ट हो जाते है अर्थात् जब हृदय भाव-दया से परिपूर्ण हो जाता है तब .. द्रव्य-दया का सहज प्रादुर्भाव होता है। किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि जीवन . को परममंगल की ओर अग्रसर करने के लिए केवल द्रव्यदया पर्याप्त नहीं है, भाव-दया भी चाहिए। भाव-दया के विना जो द्रव्य-दया होती है, वह प्राणवान
नहीं होती। .... राग-द्वेष भावहिंसा है । भावहिंसा करने वाला किसी अन्य का घात करे या न करे, प्रात्मघात तो करता ही है----उसके आत्मिक गुणों का घात होता
ही है और यही सबसे बड़ा आत्मघात है। " साधकों के सामर्थ्य और उनकी विभिन्न परिस्थिति की दृष्टि से धर्म
के दो विभाग किये गये हैं--(१) श्रमण धर्म और (२) श्रावक धर्म । श्रमण धर्म के भी अनेक भेद किये गये हैं । पर वह मूल में एक है । साधक आसानी से अपनी साधना कला सके, इस उद्देश्य से चरित्र के पांच भेद कर दिये गये हैं, यद्यपि इन सब का लक्ष्य एक ही है और उनमें कोई मूलभूत पार्थक्य नहीं है। भेद इसलिये हैं कि सभी साधकों का शारीरिक संघटन, मनोबल और संस्कार एक-सा नहीं होता, अतएव उनकी साधना का तरीका भी एक नहीं हो सकता। यही कारण है कि चारित्र और तपश्चर्या के अनेक रूप हमारे आगमों में प्रतिपादित किये गये हैं। इनमें से जिस साधक की जैसी शक्ति और रुचि हो, उसी का अवलम्बन करके वह आत्म कल्यान के पथ पर अग्रसर हो सकता है। मगर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह प्रत्येक साधक के लिए . अनिवार्य हैं । इनको देशतः स्वीकार किये बिना श्रावक्रधर्म का और पूर्णरूपेण
स्वीकार किये विना श्रमण धर्म का पालन नहीं हो सकता। ये पांच व्रत . .. चारित्र धर्म रूपी सौध के पाये हैं, मूल आधार हैं। प्राचारात्मक धर्म का
प्रारम्भ इन्हीं व्रतों से होता है ।