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१९२] था, अतएव गुरु सम्भूति विजय के चरणों में जाकर वे अतिचार की शुद्धि कर लेना चाहते थे। जैसे पैर में कांटा चुभ जाने पर मनुष्य को चैन नहीं पड़ती वह वेदना का अनुभव करता है और शीघ्र से शीघ्र उसे निकाल डालना चाहता है, इसी प्रकार व्रत में अतिचार लग जाने पर सच्चा साधक तब तक चैन नहीं लेता जब तक अपने गुरु के समक्ष निवेदन करके प्रायश्चित न कर ले । वह अतिचार रूपी शल्य को प्रायश्चित्त द्वारा निकाल करके ही शान्ति पाता। है । ऐसा करने वाला साधक ही निर्मल चरित्र का परिपालन कर सकता है ।
गुणवान् और संस्कार सम्पन्न व्यक्ति ही निष्कपट भाव से अपनी आलोचना कर सकता है । जिसके मन में संयमी होने का प्रदर्शन करने की भावना नहीं हैं वरन् जो आत्मा के उत्थान के लिए संयम का पालन करता है, वह संयम में आई हुई मलीनता को क्षण भर भी सहन नहीं करेगा।
मुनि ने गुरु के चरणों में पहुँच कर निवेदन किया-भगवन् ! आपकी इच्छा की अवहेलना करके मैंने अपना ही अनिष्ट किया । अनेक यातनाएं सहीं और अपनी आत्मा को मलीन किया है । इस प्रकार कह कर मुनिने पूर्वोक्त घटना उन्हें सुनाई । उसमें से कुछ भी छिपाने का प्रयत्न नहीं किया । चिकित्सक के पास जाकर कोई रोगी यदि उससे बात छिपाता है, अपने दोष को साफ-साफ प्रकट नहीं करता तो अपना ही अनिष्ट करता है, इसी प्रकार जो साधक गुरु के निकट अपने दोष को ज्यों का त्यों नहीं प्रकाशित करता तो वह भी अपनी आत्मा का अनिष्ट करता है। उसकी आत्मा निर्मल नहीं हो पाती। उसे सच्चा साधक नहीं कहा जा सकता।
सब वृत्तान्त सुनकर गुरुजी ने कहा-वत्स ! तू शुद्ध: है क्योंकि तू ने अपना हृदय खोलकर सव वात स्पष्ट रूप से प्रकट कर दी है ।
गुरु के इस कथन से शिष्य को आश्वासन मिला। उसने पुनः कहा- आपने मुनिवर स्थूलभद्र को धन्य, धन्य, धन्य कहा था। मैंने इस कथन पर