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• चाहिये । ऐसा न किया गया तो निस्सन्देह आत्मा का विनाश हुए बिना नहीं रहेगा। ...
सिंह गुफावासी मुनि के मन में भाव विष का संचार हुआ, पर वह विष फैलने से पहले ही शान्त कर दिया गया । रूपाकोशा रूपी विषभिषक् का सुयोग उन्हें मिल गया। उसकी चिकित्सा से वह नष्ट हो गया।
. रूपाकोशा अपने पूर्वकालिक जीवन में वेश्यावृत्ति करती थी, फिर भी उसने मार्ग से च्युत होते हुए मुनि को स्थिर किया और संयम के पथ पर प्रारूढ़ किया । यह नारी जाति की शासन के प्रति सराहनीय सेवा है। शास्त्रों में इस प्रकार के अनेक आख्यान उपलब्ध हैं जिनसे नारी जाति की सेवा का पता लगता है। राजीमती की कथा से आप सब परिचित ही. होंगे। उसने मुनि रथमि के भाव विष का निवारण किया था । वास्तव में श्रमणः संघ का यह रथ चारों चक्रों के उद्योग और सहयोग से ही चल रहा है । अतएव आज के श्रावकों और श्राविकाओं को भी अपना उत्तरदायित्व अनुभव करना चाहिये । संघ के प्रत्येक अंग को दूसरे अंगों के संयम में सहायक बनना चाहिये।..
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.." रूपाकोशा ने समझाया-महात्मन् ! यह संयम रूपी रत्न कम्बल बहुत कीमती हैं, यह अनमोल है और तीनों लोकों में इसकी बराबरी करने वाली
अन्य कोई वस्तु नहीं हैं । महान्-महान पुण्य का जब उदय होता है तब यह .. प्राप्त होता है। ऐसे महामूल्यवान् रत्न को आप भुला रहे है ! . ..,
. रूपाकोशा के संबोधन का परिणाम यह हुआ कि विषःका विस्तार नहीं .. हुआ और वह अमृत के रूप में बदल गया। विकार उत्पन्न होने पर यदि सुसंस्कार जागृत हो जाय तो यह विष की परिणति अमृत में होना है।
रूपाकोशा से विदा लेकर मुनि अपने गुरुजी के पास जाने लगें । उनके • मन में तीव्र इच्छा जागृत हुई कि अतिक्रम, व्यतिक्रम एवं अतिचार का संशोधन शीघ्र से शीघ्र कर लिया जाय । ठोकर खाकर मुनिः का भान जागृत हो गया