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१६० ] नहीं होती। उसका बीमार होना ही मानों अन्तिम समय का आगमन है। उसे कोई औषध वचा नही सकती। .
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यहां तक द्रव्य-विष के विषय में कहा गया है, जिससे प्रत्येक विवेकवान् गृहस्थ को बचना चाहिये । किन्तु पूर्ण त्यागी को तो भाव विष से भी पूरी तरह बचने का निरन्तर प्रयास करना है। उनका जीवन त्यांग एवं तपश्चरण से विशुद्ध होता है, अतएव वे द्रव्य-विष का ही सेवन नहीं करते, पर भावं. विष से भी मुक्त रहते हैं।
- काम क्रोध आदि विकार भाव-विष कहलाते हैं। द्रव्य-विष जैसे शरीर को हानि पहुँचाता है, उसी प्रकार भाव-विष आत्मा को हानि पहुँचाते हैं । द्रव्य विष से मृत्यु भी हो जाय तो एक बार होती है किन्तु भाव-विष पुनः पुनः जन्म-मरण का कारण बनता है। द्रव्य-विष द्रव्य प्राणों का घात करता है जब कि भाव-विष :आत्मा के ज्ञानादि भावप्राणों का विघातक होता है। आत्मा अनादि काल से अब तक जन्म-जरा-मरण की महावेदना से मुक्त नहीं हो सका, इसका एकमात्र कारण भाव विष है। यह भाव विष घोर दुःख रूप है । और सभी अनर्थों का कारण है । अतएव द्रव्य-विष से भाव-विष कम गर्हित और अनर्थकारी नहीं है।
जो साधक प्रमाद और मोह से ग्रस्त हो जाता है, वह भाव विष का सेवन करता है । इस भाव विष के प्रभाव से उसकी चेतना मूर्षित, सुप्त और और जड़ीभूत हो जाती है।
विष का प्रभाव यदि फैलने लगे और उसका अवरोध न किया जाय तो वह सारे शरीर को सड़ा कर विनष्ट कर देता है । भाव विष इससे भी अधिक हानिकर होता है । यह अनेकानेक जीवनों को बर्वाद करके छोड़ता है। अतएव जिनको वीतराग देव की सुधामयी वाणी को श्रवण करने का अवसर प्राप्त हुआ है उन्हें विषय-कषाय के विष का संचार नहीं होने देना चाहिये । जब विष का संचार होने लगे तो विवेक रूपी अमत से उसे शान्त कर देना