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१७८ नियंत्रण करने के लिए नियुक्त बहुत से पदाधिकारी स्वयं अप्रामाणिकता में सम्मिलित हो जाते हैं । वे रिश्वत लेकर अप्रामाणिकता में सहायक बन जाते हैं और धड़ल्ले के साथ सब प्रकार की बेईमानी होती रहती है । जैसे २ इलाज किया जाता हैं वैसे २ बीमारी भी बढ़ती जाती है । कहाभी है मर्ज बढ़ता गया जैसे दवाकी। यह कुचक्र कहाँ जाकर समाप्त होगा, नहीं कहा जा सकता। शासन की ओर से नवीन-नवीन नियम और कानून बनते जाएं और लोग नये-नये रास्ते मोजले जाएं तो देश किस अधःपतन के गड़हे में गिरेगा, भगवान ही जाने ।
___ सचमुच में समाज का सुधार कानून के बल पर नहीं हो सकता। दण्ड का भय अनैतिकता का उन्मूलन नहीं कर सकता। यह बात अब तक की स्थिति से स्पष्ट समझ में आजानी चाहिए। अब तक के कानूनों ने अनैतिकता और अप्रामाणिकता को रोकने के बदले बढावा ही दिया है और भविष्य में भी ऐसा ही होने की संभावना है ।
तो फिर अनैतिकता का अन्त किस प्रकार किया जाय ? क्या यह उचित होगा कि इस संबंध के सब कानून समाप्त कर दिये जाएं और लोगों को पूरी स्वतंत्रता दे दी जाय कि वे जो चाहें, करें, सरकार उन्हे नहीं रोकेगी ? मगर ऐसा करने की भी आवश्यकता नहीं और यह अभीष्ट भी नहीं हो सकता आवश्यकता इस बात की है कि जनता के मानस में धर्म और नीति के प्रति आस्था उत्पन्न की जाय । धर्म और नीतिके प्रति जब अास्था उत्पन्न हो जाएगी तब निश्चय ही लोगों के हृदय में परिवर्तन होगा और हृदय में परिवर्तन होने से अनैतिकता और अप्राणिकता का अधिकांश में अन्त आ सकेगा । जो शासन धर्मनिरपेक्ष नहीं, धर्मसापेक्ष होगा वही प्रजा के जीवन में निर्मल उदात्त और पवित्र भावनाएं जागृत कर सकेगा।
. सूखते हुए वृक्ष को हरा भरा रखने के लिए जैसे पत्तों पर पानी छिड़कना असफल प्रयास है, उसी प्रकार प्रजा में बढती हुई अप्राणिकता को रोकने के लिए कानूनों का निर्माण करना भी निरर्थक है । वृक्ष को हरा भरा रखने के लिए उसकी जड़ों में पानी सींचने की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार ..