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[१७७ .. रसवाणिज्य' में जो 'रस' शब्द है उससे षट् रस अर्थ नहीं लेना चाहिए। यह अर्थ लिया जाय तो समस्त खाद्य पदार्थों का व्यापार करना कर्मादान में गर्भित हो जाएगा, जो सर्वथा व्यवहार विरुद्ध होगा।
___ कई प्राचार्य धी दूध के विक्रय को भी रसवाणिज्य कहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि भारत वर्ष में प्राचीन काल में दूध घृत का बेचना निन्दनीय समझा जाता था। मनुस्मृतिकार ने तो यहां तक कह दिया है ? . . . .
व्यहेण शूद्रो भवति ब्राह्मणः सीरविक्रयात् । अर्थात् कोई ब्राह्मण यदि . ... दूध वेचता है. तो वह तीन दिनों में ब्राह्मण नहीं रहता शूद्र होजाता है। ...
यद्यपि मनुस्मृति में सिर्फ ब्राह्मण के लिए ऐसा कहा गया है फिर भी इससे दुग्ध विक्रय गहित है, यह प्राभास तो मिलता ही है। तब श्रवक दूध कैसे बेच सकता है यह विचारणीय है । क्योंकि श्रावक का दर्जा ब्राह्मण से निम्न नहीं हो सकता। भारत की साधारण जनता भी दूध बेचना नफरत की निगाह से देखती आ रही है । लोग दूध बेचना पूत बेचना समझते थे. छाछ वेचना तो भारत में कलंक की बात गिनी जाती थी।
जैसे जैनाचार्यों ने श्रावक ,के कर्मों का विवेचन किया है, और पर्याप्त । उहापोह किया है, उसी प्रकार वैदिक स्मृतियों में ब्राह्मणों के कर्मों का भी. विवेचन किया गया है !
किन्तु पूर्वकालीन जीवन व्यवस्था में और वर्तमान कालीन व्यवस्था में : बहुत अन्तर पड़ गया हैं। परिस्थितियां एकदम भिन्न प्रकार की होगई हैं। .....
आज पैसा देने पर भी शुद्ध वस्तु का मिलना कठिन हो गया है। दूध, घी तथा अन्य खाद्य पदार्थों में मिलवाट की जाती है, सरकार की ओर से मिलावट को रोकने के लिए तथा मिलावट करने वालों को दंडित करने के लिए अलग से.पदाधिकारी नियुक्त किये जाते हैं । उनः पर प्रचुर धन व्यय किया.. जाता है मगर आज के जीवन में इतनी अधिक अप्रामाणिकता प्रवेश कर गई . है कि सरकार का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो । पा रहा अप्रामाणिकता पर ।