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१७६ सकता । इसी प्रकार जो मनुष्यों और कतिपय अन्य प्राणियों की रक्षा एवं दया का ही लक्ष्य रखता है वह पूर्ण दयालु नहीं कहा जा सकता। भगवान् का त्रस
और स्थावर सभी जीवों पर एक-सा समभाव था। . प्राणीमात्र की रक्षा वही साधक कर सकता है जो अपने मूल और उत्तर गुणों की सावधानी के साथ रक्षा करता है । आत्मा अपने स्वभाव से गिर न जाय, स्वरूप रमण को छोड़ कर परभावों में रमण न करने लगे, इसके लिये जागृत रहना, यह स्वदया है । जो "पर दया" के साथ स्वदया का भी पालन करता है, वह अपनी आत्मा को बन्धदशा से मुक्त करके निवन्ध दशा की ओर ले जाता है । यही प्रवचन का उद्देश्य है। . . . महारंभ की बात बतला कर प्राणियों की रक्षा की गई, इसके लिए प्रभु की वाणी निमित्तभूत हुई। द्रव्य प्राणियों की रक्षा की; यह द्रव्यदया है। आत्मा में तृष्णा कम हो गई, परिग्रह को बढ़ाने के लिए हृदय में होने वाली उथल-पुथल मिट गई, यह भावदया है। . ..
दारू बनाने वाले को अगर दारू बनाने का त्याग करा दिया जाय तो । उसे आर्थिक हानि होगी, मगर दारू के उपयोग करने वाले को और बेचने वाले को लाभ भी होगा। मानव जीवन इतना तुच्छ नहीं है कि दो पैसे पैदा करने के लिए दुर्व्यसन और हिंसा की वस्तु बेची जाय ! थोड़े-से पैसों के लिए प्रात्मा को पाप से मलीन एवं कर्मों से भारी बनाना कदापि विवेक शीलता नहीं है । मनुष्य को कम से कम अपनी आत्मा पर तो दया करनी ही चाहिए और इसके लिए आवश्यक है कि उसे पापों से बचाया जाय । पापों से बचने के लिए ही भोगोपभोग की मर्यादा की जाती है । भोगोपभोग परिमाण व्रत के विवेचन में कर्मादानों का कथन चल रहा है । दन्तवाणिज्य और लाक्षावाणिज्य के. विषय में कहा जा चुका है अब आगे रसवाणिज्य पर विचार करना है । . . .
(८) रसवाणिज्जे (रसवाणिज्य)-रस शब्द के अनेक प्राशय ग्रहण किये जा सकते हैं परन्तु कर्मादान के प्रकरण में मदिरा, मधु और चर्बी आदि को ही प्रमुख समझना चाहिए । इन पदार्थों के सेवन से - द्रव्य और भावहिंसा होती है, अतएव इनका व्यापार भी घोर हिंसा का कारण है। . ..