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१७० नितान्त भ्रमपूर्ण है । धर्म लोक व्यवहार का विरोधी नहीं है प्रत्युत उसे सही दिशा देने का प्रयत्न करता है । उसे हितकर और सुखकर बनाता है।
विवेक से काम लिया जाय तो कुतूहल, शृंगार, सजावट और दिलवहलाव के लिए की जाने वाली निरर्थक हिंसा से मनुष्य सहज ही बच सकता है। ऐसा करके वह अनेक अनर्थों से बचेगा और राष्ट्र का हित करने में भी अपना योगदान कर सकेगा। फटाकों के बदले बच्चों को यदि दूसरे खिलौने दे दिये जाएं तो क्या उनका मनोरंजन नहीं होगा ? फटाकों से बच्चों को कोई शिक्षा नहीं मिलती । जीवन निर्माग में भी कोई सहायता नहीं मिलती। उनकी बुद्धि का विकास नहीं होता। उलटे उनके झुलस जाने या जल जाने का खतरा रहता है । समझदार माता-पिता अपने बालकों को संकट में डालने का कार्य नहीं करते। किस उम्र के बालक को कौनसा खिलौना देना चाहिए जिससे उसका बौद्धिक विकास हो सके, इस बात को भली भांति समझ कर जो मातापिता विवेक से काम लेते हैं, वे ही अपरी सन्तान के सच्चे हितैषी हैं । मगर यहाँ तो बच्चे और नौजवान सभी एक घाट पानी पीते हैं। छोटे बच्चे तो साधारण और छोटे फटाके ही छोड़ते हैं मगर समझदार नौजवान बड़े-बड़े फटाके फोड़ कर आनन्द का अनुभव करते हैं। अगर बड़े-बूढ़े लोग सभी दृष्टियों से हानिकारक ऐसी वस्तुओं का इस्तेमाल करना छोड़ दें तो समाज के गलत रिवाज बड़ी सरलता से खत्म हो सकते हैं।
अाज शासन का रवैया भी अजीव-सा है ! एक ओर शासन के सूत्रधार वचत योजना का निर्माण और प्रचार करते हैं और लोगों को चीजों के व्यर्थ उपयोग से बचने का उपदेश देते हैं, और दूसरी ओर फटाके जैसी चीजों के निर्माण की अनुमति देते हैं और उनके लिए बारूद सुलभ करते हैं ! करोड़ों की सम्पत्ति इन फटाकों के रूप में राख बन जाती है और उसके विर्षले धुए से सारा वातावरण विषाक्त बन जाता है। सरकार क्यों इस ओर ध्यान नहीं देती यह आश्चर्य की बात है।
दिवाली और होली जैसे त्यौहारों पर लोग विशेष रूप से मदिरापान . कहते है । स्वतंत्रता प्रप्ति से पहले गांधीजी ने मदिरापान बन्द करने के लिए