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. . . . . महामुनि स्थूलभद्र ने इस सत्य को अपने साधना-जीवन में चरितार्थ ___ कर दिया और बता दिया कि साधना में, यदि वह जीवन का अभिन्न अङ्ग बन - जाए और साधक का अन्तरतर उससे प्रभावित हो तो। क्या शक्ति है । वेश्या
के विलास एवं शृंगार की सभी सामग्री से सुसज्जित सदन में रहकर आत्मबल के द्वारा उस महामुनि ने वह साधना की जिसमें न केवल स्वयं का उद्धार किया वरन् वेश्या का भी उद्धार होगया। स्थूलभद्र ने वेश्या से कहा-भद्रे ! भोग की आग बड़ी विलक्षण होती है । इस आग में जो अपने जीवन को आहुति देता है, वह एक बार नहीं, अनेक बार-अनन्त बार मौत के विकराल मुख में प्रवेश करता है । अज्ञानी मनुष्य मानता है कि मैं भोग भोग कर तृप्ति प्राप्त कर लूगा मगर उस अभागे को अतृप्ति, असन्तुष्टि और पश्चात्ताप के सिवाय अन्य . कुछ हाथ नहीं लगता। .
महामुनि ने रूपकोशा को समझाया-'कोशे ! संसार में एक मार्ग दिखाई तो अच्छा देता है मगर प्रभु उससे दूर होते हैं । जिस मार्ग से भगवान् के निकट पहुँचा जा सकता है, मुझे वही मार्ग प्रिय है।"
हिंसा झूठ कुशील कर्म से, प्रभु होता है दूर ।
.. दया सत्य समभाव जहां है, रहते वहां हुजूर ॥ ___ एक कवि ने ठीक ही कहा है
.. लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर। . .. जो लघुता धारण करो, प्रभुता होत हुजूर ॥ ..
- मुनि ने रूपाकोशा से कहा-जो प्रभुता का अहंकार करता है, अपने ___को सर्व-समर्थ समझ कर दूसरों की अवहेलना करता है उससे प्रभु दूर होते हैं ।
किन्तु जो महान् होकर भी अपने को लघु समझता है, जो अन्तरंग और बाह्य - उपाधियों का परित्याग करके लघु बन जाता है, जो अत्यल्प साधनों से ही
अपना जीवन शान्तिपूर्वक यापन करता है, उसे प्रभुता और प्रभु दोनों मिलते हैं । ज्यों-ज्यों जीवन में लघुता एवं निर्मलता आएगी, उतना ही प्रभु के निकट तू जाएगी।