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लौकिक और लोकोत्तर श्रेयस् की असीम सम्भावनाएं सन्निहित हैं । भूलना - नहीं चाहिए कि जीवन एक अभिन्न-अविच्छेद्य इकाई है, जिसे धार्मिक और
लौकिक अथवा परमार्थिक और व्यावहारिक खंडों में सर्वथा विभिक्त नहीं किया जा सकता ज्ञानी का व्यवहार परमार्थ के प्रतिकूल नहीं होगा। और परमार्थ भी व्यवहार का उच्छेदक नहीं। अतएव साधक को, चाहे वह गृह त्यागी या गृहस्थ, जीवन को अखंड तत्व मानकर ही इस प्रकार जीवन के समस्त पहलुओं के उत्कर्ष में जागृत रहना चाहिए। जैन आचार विधान का यही निचोड़ है।
- इसका आशय यह नहीं कि प्रजाजनों को निर्वीर्य होकर, राजकीय शासन के प्रत्येक आदेश को नेत्र बन्द करके शिरोधार्य ही कर लेना चाहिए। राज्य शासन की ओर से टिड्डीमार, चूहेमार या मच्छरमार जैसे धर्म विरुद्ध आन्दोलन या आदेश अगर प्रचलित किये जाएं अथवा कोई अनुचित कर-भार लादा जाय तो उसके विरुद्ध सत्याग्रह या असहयोग करना व्रत भंग का कारण नहीं है । शर्त यही है कि शासन को सूचना देकर प्रकट रूप में ऐसा किया जा सकता है । इस प्रकार का राज्य विरुद्ध कृत्य अतिचार में सम्मिलित नहीं होगा क्योंकि वह छिपा कर नहीं किया जाता । इसके अतिरिक्त उसमें चौर्य की भावना नहीं वरन् प्रजा के उचित अधिकार के संरक्षण की भावना होगी। इसी प्रकार अगर कोई शासक अथवा शासन हिंसा, शोषण, अत्याचार, अनीति या अधर्म को बढ़ावा देने वाला हो तो उसके विरुद्ध कार्रवाई करनी पड़ती है । यह कार्रवाई भी विरुद्ध राज्यातिक्रम में सम्मिलित नहीं है।
राज्य की व्यवस्था का जैसे वाह्य रूप है, वैसे ही उसका दायित्व . भी सीमित है । साधारण मनुष्य राज्य शासन से लाभालाभ की अपेक्षा रखते हैं। ऋषि-मुनि तो अन्तर के राज्य (मनोराज्य) से अथवा धर्मराज तीर्थ कर के शासन से शासित होते हैं। उनकी साधना निराली होती है। वे धर्म शासन के विधान को मान्य करके चलने वाले एक देश को ही नहीं वरन् समस्त विश्व को प्रभावित करते हैं । इन्द्र-नरेन्द्र भी उनकी साधना एनं साधना प्रसूत अनिर्वचनीय. अनाकुलता तथा अद्भुत शान्ति के लिए तरसते हैं। उनकी प्रभावजनक साधना । इन्द्रों को भी चकित कर देती है तो मानवों की बात ही क्या।