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________________ . . मुनि के इस प्रकार के उद्गारों ने रूपकोशा के हृदयकोश को स्पर्श किया। अब तक उसने जीवन के एक ही पहलू को देखा था, अब दूसरा पहलू उसके सामने आया । उसके हृदय-परिवर्तन को लक्षित करके मुनि नेपुनः कहा-अगर परिपूर्ण संयम की साधना तुझसे न हो सकती हो तो कम से कम मर्यादित संयम को अंगीकार करके श्राविका का जीवन अवश्य व्यतीत कर। • राजा की आज्ञा में बल होता है दंड का और महात्मा के आदेश में बल है ज्ञान और करुणाभाव का। निमित्त अनुकूल मिलने से, मुनि के द्वारा विकीर्ण प्रकाश के पुज से वेश्या का जीवन पालोकित हो उठा। उसकी प्रस्तुत चेतना । जागृत हो गई । क्या वेश्या और क्या कसाई, सभी मूलतः निर्मल ज्योति-स्वरूप । हैं । सबमें समान चैतन्य धन विद्यमान है । परन्तु वह ज्योति और चेतना दवी एवं बुझी रहती है । जब एक प्रकार की रगड़ उत्पन्न होती है तभी अात्मा जागृत होती है । मूल स्वभाव को देखा जाय तो कोई भी आत्मा कसाई, वेश्या या लम्पट नहीं, वह शुद्ध, बुद्ध और अनन्त अात्मिक गुणों से समृद्ध है, निष्कलंक है। हीरक करण मूल में उज्ज्वल ही होता है, फिर भी उस पर धूल जम जाती - है, उसमें गन्दगी आ जाती है । इसी प्रकार शुद्ध चिन्मय प्रात्मा में जो अश द्धि.. आ गई है, वह भी बाहरी है, पर-संयोग से है, पुद्गल के निमित्त से आई है। कोशा ने जीवन में परिवर्तन कर डालने का निश्चय किया। वह मुनि के चरणों में गिर पड़ी। मुनि बोले-अधीर न हो भद्रे ! साधना में अपूर्व क्षमता है । तेरी साधना अतीत की कालिमा धो देगी और आगे कालिमा नहीं लगने देगी। वेश्या, चाण्डाल, चोर, जुआरी और वटमार जैसे सभी पतितों का उद्धार करने वाले पतित पावन भगवान् हैं। मेरू के बराबर पापों की ढेरी भी भगवान के नामस्मरण से नष्ट हो जाती है । कहा भी है- जिस वेश्या का जीवन भोग के कीचड़ में फंसा हुआ था, जिसनें . भोग के सिवाय योग की बात सोची तक नहीं थी, वही अब मुनि की संगति से प्रात्मोन्मुख हुई और आत्मा के उद्धार के लिए तत्पर हो गई।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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