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और प्ररूपणा की है, उसके लिए प्रायश्चित्त लेना होगा । भगवान् के श्रीचरणों में जाकर क्षमा याचना करनी होगी।
आत्म शुद्धि के लिए सरलता की अत्यन्त आवश्यकता है । जिस साधक का हृदय सरल है, वह कदाचित् उन्मार्ग पर भी चला जाय तो शीघ्र सन्मार्ग पर आ सकता है ! इसके विपरीत वक्र हृदय साधक शीघ्र समझता नहीं और कदाचित् समझ जाय तो भी अपने को न समझा हुआ प्रकट करता है। उसके हृदय में कपट होता है, जिसके कारण उसकी बाह्य क्रियाएं सफल नहीं हो पातीं । भगवान् कहते हैं. सोही उज्जु अभूऊस्स, धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठइ ।
· जिसके अन्तःकरण में ऋजुता है, उसीका हृदय पवित्र है और जिसका हृदय पवित्र होता है वही वास्तव में धर्मात्मा है। साध्वी सुदर्शना के हृदय में सरलता थी। हजार साध्वियाँ उसके नेतृत्व में थीं। वह विदुषी और कार्यशीला थी। उसने गुरु के निकट जाकर निवेदन किया-हमारी विचारसरणी अशुद्ध थी। अब हमें अपनी मिथ्या धारणा का परिज्ञान हुआ है । हम आपके चरणों में नमस्कार करती हैं । समुचित प्रायश्चित देकर हमारी आत्मा की शुद्धि कीजिए।
इस प्रकार एक सामान्य व्रती श्रावक, साध्वी समूह के लिए प्ररणास्रोत बन गया । उसमें तर्कबल नहीं था। तर्क करने से जय-पराजय की भावना का उदय हो सकता है और सत्य तत्व के निर्णय में कई बार वह बाधक बन जाता है । श्रावक ने युक्तिबल से काम लिया और अहंकार को आड़े नहीं आने दिया, अतएव सफलता शीघ्र मिल गई । किसी शायर ने ठीक कहा है
'फिलसफी की बहस के अन्दर खुदा मिलता नहीं ।
डोर को सुलझा रहा हूं, और सिरा मिलता नहीं।' ... उच्चकुल जाति या भौतिक वैभव काम नहीं आएगा। पवित्र हृदय से की गई करणी ही काम आएगी और करणी के अनुसार ही सुगति मिलेगी।