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[ १५६ धर्म क्रिया करने से व्यावहारिक जीवन में कुछ गंवाना नहीं पड़ता, बल्कि वह भी अत्यन्त सुख-शान्तिदायक बन जाता है। व्रतों की सीमाएं इस प्रकार निर्धारित की गई हैं कि प्रत्येक वर्ग अपने जीवन व्यवहार को भलिभाँति निभाता हुआ भी उनका पालन कर सकता है और अपनी आत्मा को कर्म के बोझ से हल्का बना सकता है । जो समस्त सांसारिक व्यवहारों से मुक्त होकर पूर्ण रूप से व्रतों का पालन करना चाहता है, वह अपनी आत्मा का कल्याण शीघ्र कर सकेगा.। किन्तु जो इतना करने में समर्थ नहीं हैं वह भी एक सीमा वाँध कर व्रती वन सकता है। ... ... ... ... .. . ... ......
प्रजापति ढंक यद्यपि कुभकार की आजीविका करता था तथापि वह सन्तोषी था । उसने अपने भोगोपभोग की मर्यादा कर ली थी और इच्छानों को सीमित कर लिया था। ......... ..
त्रिकालवेत्ता मुनि होने के कारण भगवान् महावीर स्वामी के सामने सभी बातें हस्तामलकवत् हों, इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। जमीन फोड़ने के साथ दिल फोड़ने का काम भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं था। वहुत-से काम ऐसे होते हैं जिनमें ऊपरी दृष्टि से महारंभ नहीं दिखाई देता, बल्कि विशेष
आरंभ भी मालूम नहीं होता, तथापि उन्हें. यदि सजगता एवं निर्लोभ भाव से नहीं किया जाय तो वह महारंभ का रूप ले लेते हैं। उदाहरण के लिए वकालत के धंधे को ही लीजिए। इस धन्धे में विशेष प्रारम्भ-समारम्भ नहीं मालूम होता। शुद्ध न्याय की प्राप्ति में सहायक होना वकील का कार्य है। किन्तु यदि कोई वकील सत्य-असत्य की परवाह न करके केवल. आर्थिक लाभ के लिए. असत्य को सत्य और सत्य को असत्य सिद्ध करता है और.. जान-बूझ कर : निरपराध को दण्डित कराता है तो वह अपने.धन्धे का दुरुपयोग करके महान् प्रारम्भ पाप का कार्य करता है । यह दिल फोड़ने वाला कार्य है। . . . . .
इसी प्रकार जुआ खेलने में भी प्रत्यक्ष प्रारम्भ दिखाई न देने पर भी घोर प्रारम्भ समझना चाहिए। द्य-त सात कुव्यसनों में गिना गया है और श्रावक के योग्य कार्य नहीं है। ... .... ... . . . . .
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