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1 १४३ ..:... पार्थिव रत्नों से .क्या . मनुष्य - सुखी हो सकता है ? वे तो. चिन्ता,
व्याकुलता, अतृप्ति और शोक-सन्ताप के ही कारण होते हैं। उनसे लेश मात्र भी ... अात्मा का हित नहीं होता। इन भौतिक रत्नों की चकाचौंध से अंधा होकर . मनुष्य अपने स्वरूप को देखने और पहचानने में भी अरामर्थ बन जाता है। शरीर में जब बाधा उत्पन्न होती है तो हीरा और मोती उसका निवारण नहीं कर सकते । उदर में भूख की ज्वाला जलती है तो उन्हें खा कर तृप्ति प्राप्त नहीं की जा सकती। जब अजेय यम का आक्रमण होता है और शरीर को त्याग कर जाने की तैयारी होती है तब जवाहरात के पहाड़ भी आड़े नहीं
आते । मौत को हीरा-मोतियों की घूस देकर प्राणों की रक्षा नहीं की जा .. सकती। परभव में उन्हें साथ भी नहीं ले जाया जा सकता।
आखिर ये जवाहरात किस मर्ज की दवा हैं। इनकी प्राप्ति होने पर मान कषाय का पोषण अवश्य होता है जिससे आत्मा अधोगति का अधिकारी बनता है।
- सम्यग्दर्शन आदि भाव-रत्न अात्मा की निज सम्पत्ति हैं । इनसे आत्मा को हित और सुख की प्राप्ति होती है । इनकी अनुपम आभा से प्रात्मा देदीप्यमान हो उठता है और उसका समस्त अज्ञानान्धकार सदा के लिए विलीन हो जाता है । ये वे रत्न हैं जो प्रात्मा को सदा के लिए अजर, अमर, अव्याबाध और तृप्त बना देते हैं । इनके सामने काल की दाल नहीं गलती। रोग को पास आने का योग नहीं मिलता ! यह अक्षय सम्पत्ति है। अतीव-अतीव पुण्य के योग से इसकी प्राप्ति होती है। इन आत्मिक रत्नों की तुलना में हीरा, पन्ना, माणिक, नीलम आदि पाषाण के टुकड़ों से अधिक कुछ भी नहीं है।
तथ्य यही है, फिर भी मुढधी मनुष्य पत्थर के टुकड़ों को रत्न मान कर उनकी सुरक्षा के लिए रात-दिन व्यग्र रहता है और. असली रत्नों कीसम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उपेक्षा करता है ! कितनी करुणास्पद स्थिति है, नादान मानव को !
.. प्रात्मदेव शान, दर्शन और चारित्र का धन लेकर चला है तो सैंकड़ों ।