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१४२] सतर्कता के साथ यात्रा की और वे निर्विघ्न पाटलीपुर आकर रूपाकोशा के भवन में प्रविष्ट हुए । अनेकानेक कष्ट सहन करने के पश्चात् प्राप्त इस सफलता पर वे.अत्यन्त प्रसन्न थे । इतने प्रसन्न जैसे शत्रु का दुर्गम दुर्ग जीत लेने पर कोई सेनापति फूला नहीं समाता हो।
नेपाल नरेश प्रत्येक व्यक्ति को सन्देह की दृष्टि से नहीं देखते थे।' उनका मन्तव्य था कि संसार के सब मनुष्य समान नहीं हैं अतएव सब के साथ एक-सा व्यवहार करना उचित नहीं है। यही कारण था कि मुनि को दूसरी बार कम्बल की याचना करते देख कर दरबारी लोग जब तरह-तरह की बातें कर रहे थे, तब स्वयं नरेश ने मौन ही धारण किया। उन्होंने मुनि के चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न किया और उनका कथन यथार्थ पाया। मुनि ने कहा-मैं कन्धे पर रत्नकम्बल लटकाकर जा रहा था कि लुटेरे श्रा धमके और ले गए ? मेरी इष्ट सिद्धि नहीं हुई, अतएव दूसरी बार आया हूँ।
नेपाल-नरेश ने मुनि के कथन पर विश्वास किया और दूसरा रत्नकम्बल प्रदान करने के साथ इस बार सावधानी बरतने की सूचना भी दी। नरेश की सूचना के अनुसार मुनि ने इस बार बाँस में कम्बल को फिट कर लिया । बाँस को लाठी की तरह लेकर उन्होंने जंगली रास्ते को पार किया।
रुपये और नोट कितने आए और चले गए ! कमरे में तिजोरी के अन्दर रकम बन्द होने पर भी द्वार पर पहरेदार न हो तो धनी मनुष्य को चिन्ता के कारण निद्रा नहीं आती ! अगर तिजोरी में हीरा-मोती हुए तब तो सुरक्षा का जबर्दस्त प्रबन्ध करना पड़ता है, क्योंकि जवाहरात दुर्लभ हैं और इसी कारण विशेष मुल्यवान् है । कौड़ियों की रक्षा के लिए किसी को विशेष चिन्ता नहीं करनी पड़ती। परन्तु महावीर स्वामी कहते हैं-मानव ? तनिक विचार तो कर कि ये पौद्गलिक रत्न अधिक मूल्यवान हैं अथवा .. सम्यग्ज्ञान दर्शन-चारित्र रूप आत्मिक रत्न अधिक मूल्यवान हैं ? दोनों प्रकार के रत्नों में कौन अधिक दुर्लभ हैं ? कौन अधिक हितकारी और सुखकारी है ? किनसे आत्मा को निराकुलता और शान्ति प्राप्त होती है ? .........