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पड़ा। वै वापिस नेपाल-नरेश के पास पहुँचने को मुड़ गए। चलते-चलते राजदस्वार में पहुंचे। स्कार म पहुच । .
. लज्जा और संकोच ने पहले तो मुनि के मुख पर ताला जड़ दिया। उनका मन आत्मग्लानि से भर गया। यद्यपि मुनि जीवन याचनामय होता है उसकी समस्त प्रावश्यकताएं याचना से ही पूर्ण होती हैं
'सवं' से जाइ होइ, मत्यि किंचि प्रजाइयं ।
साधु के पास कोई उपकरण ऐसा नहीं होता जो अयाचित हो। याचना करनेमें उसे दैन्य का अनुभव भी नहीं होता और नहीं होना चाहिए । किन्तु यहां तो बात ही दूसरी थी। सिंह गुफावासी मुनि को संयम-जीवन के निर्वाह के लिए रत्नकम्बल की आवश्यकता नहीं थी। वह कम्बल उनके संयम में सहायक नहीं था। यही नहीं, वरन् बाधक था। इसी कारण मुनि लज्जा और संकोच से धरती में गड़े जारहे थे। राजा के समक्ष जाकर भी मुनि का मुंह सहसा खुल नहीं सका। वह थोड़ी देर मौन रहे । .
मुनि को दूसरी बार रत्न कम्वल के लिए आया देख दरबारियों को भी विस्मय हुआ । किसी ने सोचा- हो न हो मुनि संग्रह के शिकार हैं।
किसी ने कहा-क्या रत्नकम्बल बेच कर पूंजी इकट्ठी करने की सोची है ?
: तीसरा बोला-वास्तव में यह साधु भी है या नहीं ! साधु का वेष धारण करके कोई ठग तो नहीं है । : .... ...
इस प्रकार नाना प्रकार की टीकाएं होने लगी जितने मुंह उतनी बातें 1. मुनि चुपचाप उन्हें सुनते रहे। अन्त में उन्होंने अपनी करुण कहानी राजा
को सुनाई । राजा का हृदय द्रवित हुआ और पुनः उन्हें रत्नकम्बल मिल गया। __. . रत्नकम्बल पाकर मुनि को ऐसा हर्ष हुआ जैसे सिद्धि प्राप्त हो गई । हो। वह तत्काल वापिस लौट पड़े। इस बार मुनि ने अत्यन्त सावधानी और :
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