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जैसा यहाँ श्रावक के कर्म पर विचार किया गया है, उसी प्रकार __ मनुस्मृतिकार ने ब्राह्मणों के कर्म बतलाए हैं। ब्राह्मणों के कर्म का निरूपण
करने में मनुस्मृतिकार का लक्ष्य यह रहा प्रतीत होता है कि त्याग-साधनापरायण ब्राह्मण अर्थोपार्जन में लीन न बन जाएं। थावक का पद भी ऊँचा है। श्रावक को ब्राह्मण भी कहा गया है । साधु की तरह श्रावक भी किसी को शिक्षा दे सके, ऐसा लक्ष्य है।
किन्तु शिक्षा वही दे सकता है जो स्वयं त्याग करता है। स्थूल प्राणातिपात का और महारंभ-महापरिग्रह का स्वयं जो त्याग करेगा वही दूसरे को इनके त्याग की प्रेरणा कर सकेगा, अन्यथा
'पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
जे पाचरहि ते नर न घनेरे ।' . यह उक्ति चरितार्थ होगी । जो स्वयं त्याग करता है और शिक्षा देता है, उसका प्रभाव अड़ोसी-पड़ौसी पर क्यों नहीं पड़ेगा? उनका परिमार्जन क्यों नहीं होगा ? त्याग भावना विद्यमान होने से उसकी वाणी प्रभावोत्पादक होगी प्राचार के अनुरूप विचार जव भापा के माध्यम से व्यक्त किये जाते हैं तो अवश्य दूसरों पर स्थायी प्रभाव अंकित करते हैं। श्रोताओं के हृदय में परिवर्तन ला देते हैं । हाँ, कोई एकदम ही अपात्र और कुसंस्कारी श्रोता हो तो वात दूसरी है।
पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों की दृष्टि से ईटें पकाने, खपरा पकाने का तथा लोहार प्रादि का धंधा अंगार कर्म में समाविष्ट हो जाता है पर कोयला वना-बना कर बेचना अत्यन्त खर कर्म है, अतएव श्रावक को इसका परित्याग करना ही चाहिए।
(२) वरणकन्ने (वनकर्म)-वृक्षों को काट कर बेचने का काम वनकर्म कहलाता है । वनकर्म करके मनुष्य घोर पाप उपार्जन करता है। वन के वृक्षों को काटने का ठेका लेने वाला किसी अन्य वात को ध्यान में नहीं रखता।