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[१०६ वाले कार्य करने से हृदय कठोर बन जाता है और करुणा भाव विलुप्त हो जाता है। इसी कारण ऐसे कार्यों को कर्मादान कहा गया है।
कर्मादान पन्द्रह हैं जिनमें से दस कर्म से सम्बन्ध रखते हैं और पांच व्यापार-धंधे से संबंध रखते हैं। आशय यह है कि कर्मादानों में दो प्रकार के कार्यों को ग्रहण किया गया है--वाणिज्य को और कर्म को। जिस चीज को
आप स्वयं बनाते नहीं किन्तु उसका क्रय-विक्रय करके लाभ कमाते हैं, वह वाणिज्य कहलाता है । एक बुनकर स्वयं कपड़ा बनाता और बेचता है, वह कर्म कहलाता है।
- भोगोपभोग परिमाण व्रत में इन्हीं दोनों के संबंध में मर्यादा की जाती है। जब कोई गृहस्थ इस व्रत को धारण करे तो उसे प्रभोलन से ऊपर उठना चाहिए और देश-काल संबंधी वातावरण से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
उसके अन्तः करण में संयम के प्रति गहरी लगन होनी चाहिए और उसके __फलस्वरूप जीवन में सादगी आ जानी चाहिए। वह अपनी आवश्यकताओं को
नियंत्रण में रक्खेगा और तृष्णा के वशीभूत नहीं होगा तभी इस व्रत का .. समीचीन रूप से पालन कर सकेगा।
अनगार धर्म साधना का रूप निराला है। उसमें पूर्ण रूप से वाणिज्य __ एवं कर्म का त्याग तो होता ही है, सभी प्रकार के प्रारंभमय कार्यों का भी .. त्याग होता है। अनगार का जीवन ऐसी मर्यादा से बंधा है कि प्रलोभनों को
वहां जगह ही नहीं है । जरा-सी असावधानी में वह वर्षों की कठिन साधना को गंवा देता है । सांसारिक हानि लाभ के विषय में साधारण मनुष्य भी सावधान रहता है तो आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में तो और भी अधिक सचेत रहने की आवश्यकता है । जो सचेत रहेगा वह आत्मिक धन को नहीं खोएगा । उसे , मानसिक सन्तुलन रखने की अनिवार्य आवश्यकता है।
अनादि कालीन कुसंस्कारों के कारण मन में विविध प्रकार के आवेगों की अमियाँ उत्पन्न होती हैं । अगर मनुष्य उनके वेग में वह जाता है तो उसका कहीं ठिकाना नहीं रह जाता ! भय और क्रोध के वेग को जीतना आसान नहीं