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१०८] की तरह स्वयं चलना चाहिए, मुर्दे की तरह दूसरे के सहारे चलना शोभा नहीं देता।
श्रावक अानन्द ने महावीर स्वामी की ज्ञान ज्योति से अपना लघु दीप जला लिया और अब वह स्वयं पालोकित होकर चल रहा है। उसने भोगोपभोग परिमाण व्रत को जव अंगीकार किया तो भोजन की दृष्टि से होने वाले पाँच और कर्म की दृष्टि से होने वाले पन्द्रह अतिचारों से भी बचने का संकल्प किया । पाँच अतिचारों का प्रतिपादन किया जा चुका है। कर्मादानों के सम्बन्ध में कुछ वातें बतलाना आवश्यक है।
'कर्मादान' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है, वे दो शब्द हैं-कर्म और अादान । जिन कार्यों से कर्म का बन्ध होता है वे कर्मदान हैं, यह इस शब्द का अर्थ है । किन्तु यह अर्थ परिपूर्ण नहीं है । संसार में ऐसी कोई प्रवृति नहीं है जिससे कर्म का आदान (ग्रहण-बन्ध) न होता हो। शुभ कृत्य शुभ कर्मों के आदान के कारण हैं तो अशुभ कृत्यों से अशुभ कर्मों का आदान होता है । इस प्रकार भाषण, प्रवचन, श्रवण, मुनिवन्दन आदि सभी क्रियाएँ कर्मादान सिद्ध हो जाती हैं । फिर कर्मादानों की संख्या पन्द्रह ही क्यों कही गई है ? क्या वास्तव में संसार के सभी कृत्य कर्मादान ही हैं ? इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है।
___ 'कर्मादान' जैन परिभाषा के अनुसार योगरूढ़ शब्द है। यहाँ 'कर्म' शब्द से महा कर्म अर्थ समझना चाहिए, अर्थात् जिस कार्य या व्यापार धंधे से घोर कर्मों का वन्ध हो, जो कार्य महारंभ रूप हों, वही कर्मादान कहलाते हैं।
कर्म दो प्रकार के होते हैं-(१) खर कर्म और (२) मृदु कर्म । जिस कर्म में हिंसा बढ़ न जाय, यह विचार रहता है, वह सौम्य कर्म कहलाता है
और जहाँ यह विचार न हो वह खर कर्म है । अथवा यों कहा जा सकता है कि जो कर्म आत्मा के लिए और अन्य जीवों के लिए कठोर बनें, वे खर कर्म हैं । खर कर्म दुर्गति की ओर ले जाते हैं। जीवों के विनाश की अधिकता