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अतिचार बतलाए गए हैं और उनका विवेचन भी किया जा चुका है।
मोक्षमार्ग का साधक, चाहे वह मुनि हो या गृहस्थ, जीवनरक्षण और शरीर रक्षण के लिए ही भोजन करता है, रसना की तृप्ति के लिए नहीं, स्वाद लोलुपता से प्रेरित होकर नहीं। इसी उद्देश्य से यह कहा गया है कि श्रावक तुच्छ औषधियों के प्रयोग को भी सीमित करे।
अतिचारों की गणना में 'औपधि' शब्द का प्रयोग विशेषअभिप्राय से किया गया है। उसमें कुछ रहस्य निहित है । प्रत्येक तुच्छ वनस्पति-धान्य को औषधि या औषध कहा है । 'प्रोपं-पोषं, धत्त-धारयति, इति औषधिः ।' यह इस शब्द की व्युत्पत्ति है, जिसका अभिप्राय यह है कि जो शरीर को पुष्टि प्रदान करे वह औषधि कहलाती है । मूल औषधि या दवा धान्य वनस्पति है। - लोग समझते हैं कि 'नेचरोपैथी' पश्चिम की देन है, मगर जिन्होंने भारतीय साहित्य-सागर में अवगाहन किया है, वे भलीभांति समझ सकते हैं कि इसका मूल भारत में है । उत्तराध्ययन सूत्र के मृगा पुत्रीय अध्ययन को जो विचारपूर्वक पढ़ेंगे, वे इस तथ्य से परिचित होंगे। भारत के मनीषी बहुत प्राचीन काल से प्राकृतिक उपचार के महत्व को जानते थे। अाज भारतवासी उसके महत्व को भूल रहे हैं और पश्चिम के लोग उसकी उपयोगिता को स्वीकार कर रहे हैं, यह एक विस्मय की बात है।
प्राकृतिक चिकित्सा के मुकाबिले में अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित हुई हैं। आज इस देश में विदेशी दवाओं का इतना अधिक प्रचार हो गया है कि भारत की आयुर्वेदिक औषधों को भी उनके समान गोलियों, केप्सूलों और इंजेक्शनों के ढांचे में ढालना पड़ा। आयुर्वेद का विधान है'ज्वरादी लंघनम् पथ्यम्' अर्थात् बुखार आते ही उपवास कर लेना चाहिए, किन्तु आज इस बात पर कौन विश्वास करता है ? सूर्य की किरणें और जल आदि प्राकृतिक वस्तुएँ बड़ी लाभदायक औषधियाँ हैं।
ऋषि-मुनियों के दीर्घ जीवन का कारण उनका प्राकृतिक वस्तुओं का सेवन है । कई नाणी जीभ से चाट चाट कर अपना घाव ठीक कर लेते हैं।