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कर्मदान कहा जा चुका है कि चांरित्र धर्म दो भागों में विभाजित किया गया है-(१) अनगार धर्म और (२) सागार धर्म । मुनियों का धर्म अनगार धर्म कहलाता है, जिसका अाधार पूर्ण त्याग है । पूरी तरह पापों से निवृत्त होने पर और ममता को जीत लेने पर ही अनगार धर्म का पालन हो सकता है। किन्तु यह योग्यता सव में नहीं होती। जीवन को इतनी उच्च भूमिका पर पहुँचाना साधारण व्यक्तियों के लिए सुसाध्य नहीं है। अतएव जो अनगार धर्म के मार्ग पर नहीं चल सकता वह सागार धर्म अर्थात् गृहस्थ धर्म का पालन करता है, जिसे श्रावक धर्म भी कहते हैं । मुनि धर्म और श्रावक्रधर्म की दिशा में कोई अन्तर नहीं है-अन्तर केवल स्तर का है । अतएव जैसे मुनि अहिंसा की आराधना करता है वैसे ही श्रावक भी। मुनि बस-स्थावर जीवों की पूर्ण अहिंसा का पालक होता है परन्तु श्रावक उसे अांशिक रूप में पाल सकता है । फिर भी उसका लक्ष्य सदैव अहिंसा की ओर ही रहता है। वह अधिक से अधिक जीव रक्षा करता हुआ अपना संसार व्यवहार चलाता है। वन्ध मोक्ष
आदि की विचारधारा उसके जीवन से अछूती नहीं रहती। प्राणातिपात विरमण उसका प्रथम धर्म है । वह सापेक्ष, निरपेक्ष, निवार्य, अनिवार्य कार्यों को लक्ष्य में रखकर चलता है। विवेक का दीपक उसका मार्ग दर्शक होता है । वह ऐसे भोगों तथा कर्मों पर नियंत्रण करता है जिससे बड़ी हिंसा होती हो । वह निरर्थक हिसा नहीं करता और सार्थक हिंसा से भी अधिक से अधिक वचने का प्रयास करता है।
अहिंसा की आराधना के लिए और साथ ही ममत्व भाव को कम करने के लिए ही गृहस्थ भोगोपभोग की सामग्री की मर्यादा बाँध लेता है। भोगोपभोग परिमाण व्रत का निर्मल पालन हो सके, इस उद्देश्य से उसके पांच