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भोगोपभोगवत की विशुद्धि
मुक्ति के लिए प्रयाण करने वाले प्रत्येक पुरुष के लिए यह आवश्यक है कि वह जगत् के समस्त प्राणियों के प्रति समभाव धारण करे और उनके सुख-दुख को अपने ही सुख-दुख के समान समझे । अस और स्थावर जितने भी प्रकार के जीव हैं, सब के प्रति मैत्रीभावका धारण करना अध्यात्म साधना का अनिवार्य अंग है।
भगवान महावीर स्वामी ने सजीवों के समान स्थावर जीवों की रक्षा करना भी आवश्यक बतलाया है, मगर सभी साधकों की योग्यता और पात्रता समान नहीं होती। हाथी का पलान हाथी ही संभाल सकता है । प्रत्येक स्तर के मनुष्य के लिए यदि समान साधना का विधान किया जाय तो वह अनुकूल नहीं होगी। वह यदि गृहत्यागी अनगार के योग्य होगी तो गृहस्थ उससे लाभ नहीं उठा सकें गेऔर उनका जीवन साधना विहीन रह जायगा। अगर वह गृहस्थ के योग्य हुई तो साधुओं को भी गृहस्थों के समान होकर रहना पड़ेगा । इस प्रकार दोनों तरफ से हानि होगी। .
___ इस स्थिति को सामने रख कर महावीर स्वामी और उनके पूर्ववर्ती तीर्थ करों ने सभी स्तर के साधकों के लिए साधना क्षेत्रों का विधान कर दिया है। मुनिधर्म में सम्पूर्ण विरति का विधान है और गृहस्थ धर्म में देशविरति का । यहाँ इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि साधु और गृहस्थ के धर्म में कोई विरोध नहीं है, वस्तुतः एक ही प्रकार के धर्मों के पूर्ण और अपूर्ण दो . स्तर हैं। साधु भी अहिंसा का पालन करता है और गृहस्थ भी । किन्तु गृहः व्यवहार में निवृत होने और भिक्षाजीवी होने के कारण साधु बस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा से बच सकता है किन्तु गृहस्थ के...लिए यह ..