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[६३ अनुग्रह करके मुझे अपनी शरण में लीजिए, मेरा पथप्रदर्शन कीजिए और संसार-अटवी से पार होने में मेरी सहायता कीजिए।
___ अनुभवी साधक सोचता है-इसे ग्रहण करने के कारण मेरी एकाग्र साधना में कुछ बाधा आएगी, मगर दूसरे की साधना में निस्पृह भाव से सहायक होना भी साधना का एक अंग है । इसके अतिरिक्त जिन शासन की परम्परा को निरन्तर चालू रखने के लिए भी यह आवश्यक है कि साधना क्षेत्र में आने वाले अनुभव हीन जनों का. मार्ग दर्शन किया जाए। अगर मेरे .. गुरुजी ने मुझे शरण न दी होती तो मैं आज इस स्थिति में कैसे आता ? जब मैंने किसी की छत्र छाया ली तो ऋण को चुकाने के लिए भी यह आवश्यक है कि मैं किसी को अपनी छत्रच्छाया प्रदान करूं।
' गुरुं और शिष्य के सम्बन्ध का यह शास्त्रीय आधार है। पुराने परिवार को त्याग कर नया परिवार बनाया इस संबंध का उहेश्य नहीं है। हुकूमत चलाने या प्रतिष्ठा पाने के लिए चेलों की फौज नहीं बनाई जाती। ऐसी स्थिति में गुरु अपने शिष्य को ऐसी ही अनुमति देगा जिससे उसके संयम की वृद्धि हो । वह ऐसा आदेश कदापि न देगा जिससे संयम को खतरा उपस्थित हो जाए।
गुरु संभूतिविजय इसी कारण उन मुनियों की प्रार्थना को सुनकर 'हाँ' नहीं कह सके । वे मौन ही रह गए। । - जव शिष्यों ने देखा कि गुरुजी मौन हैं तो 'मौनं सम्मतिलक्षणम्' अर्थात् चुप्पी सहमति का लक्षणं है, यह समझ कर वे वहाँ से चल दिए । सिंह गुफावासी अनगार रूपाकोशा के घर जाने को उद्यत हो गए। आगे की घटना प्रसंग आने पर विदित होगी । हमें इस घटना से यह सीखना है कि ईर्ष्या के वदले यदि सात्विक स्पर्धाभाव से काम लिया जाय तो इह- परलोक में कल्याण हो सकता है।