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[६५ भव नहीं है। उसे युद्ध, कृषि, व्यापार आदि ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिनमें इसा अनिवार्य है । अतएव स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग उसके लिए रनिवार्य नहीं रक्खा गया । त्रस जीवों की हिंसा में भी केवल निरपराध जीवों की संकल्पी हिंसा का ही त्याग आवश्यक बतलाया है। इससे अधिक त्याग करने बाला अधिक लाभ का भागी होता है किन्तु देशविरति अंगीकार करने के लिए इतना त्याग तो अावश्यक है । इसी प्रकारअन्यान्य व्रतों में भी गृहस्थ को छूट दी गई है।
. गृहस्थ ने जिस सीमा तक जो व्रत अंगीकार किया है, उसका पालनं. कष्टों और विघ्न-बाधाओं का सामना करके भी वह करता है । व्रत के मार्ग में आने वाली सभी कठिनाइयों को वह दृढ़ता पूर्वक सहन करता है। जिन सीमाओं में उसने मनोवृत्ति को वश में करने का व्रत लिया है, उसका वह पालन करेगा। यही नहीं, सम्पूर्ण रूप से विरति का पालन करना उसका लक्ष्य होगा और वह उस लक्ष्य की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयास करेगा। यह बात दूसरी है कि वह उस ओर बढ़ पाता है या नहीं और यदि बढ़ पाता है तो कितना ?
___अानन्द श्रावक के चरित्र में श्रावक जीवन की एक अच्छी झांकी हमें मिलती है। उसने भोगोपभोग के साधनों की जो मर्यादा की थी, शास्त्र में उसका दिग्दर्शन विवरण मिलता है । भोगोपभीग नियमन संबंधी व्रत के दो विभाग हैं-भोजन सम्बन्धी और कर्म संबंधी । कर्मसम्बन्धी भोगोपभोग में जो मर्यादा की जाती है, उसे भगवान महावीर ने समझा दिया हैं । उस पर
आप ध्यान देंगे तो विदित हो जाएगा कि श्रावक का शास्त्रीय जीवन वैसा नहीं जैसा आज दिखाई देता है, वरन् वह निराले ही ढंग का होता है। ... गृहस्थ भले ही श्रावक जीवन में रहता है, मगर उसका लक्ष्य 'मुनिजीवन' होता है । मुनिजीवन एक प्रकार से पराश्रित है, क्योंकि मुनि गृहस्थ के यहां से निर्वाह योग्य वस्तु पाता है । गृहस्थ जिन वस्तुओं का उपयोग करता होगा, वही वस्तुएँ साधु को प्राप्त हो सकेंगी, उन्हें ही वह दे सकेगा। सोनेचांदी के पात्रों में खाने वाला यदि काष्ठपात्र न रखता हो तो अवसर पाने