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- तीनों मुनि शीतकालीन तपःसाधना में निरत हो गए। साधु शब्द का अर्थ ही है-साधनाशील । मगर सामान्य संसारी जीवों की अपेक्षा उसकी साधना निराली होती है । सामान्य लोग भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए साधना करते हैं जब कि साधु उनके त्याग की और अभिलाषा न करने की साधना करता है । शुद्ध आत्मोपलब्धि ही उसकी साधना का उद्देश्य होता है।
गृहस्थ और साधु के जीवन की साधनाएँ दो प्रकार की होती हैंसामान्य साधना और विशिष्ट साधना । षट् आवश्यक करना, स्वाध्याय करना ध्यान करना व्रतों का पालन करना आदि दैनिक साधना सामान्य साधना कहलाती है। विशेष साधना वह है जो विशिष्ट पर्व आदि के अवसरों पर की जाती है। चातुर्मास के समय की जाने वाली अतिरिक्त साधना भी विशिष्ट साधना के अन्तर्गत है।
. सामान्य साधना के समय तीनों मुनियों के मन में ईर्ष्याभाव था। ईर्ष्या के बदले अगर स्पर्धा का भाव होता और वे काम-विजय के लिए चित्त वशीभूत करने का विशिष्ट अभ्यास करते तो उनके हित में अच्छा होता। स्वस्थ स्पर्धा दूसरे के उत्थान एवं विकास में बाधक नहीं बनती। उसमें दूसरों का भी विकास वांछित होता है और उसकी अपेक्षा अपना अधिक विकास अभीष्ट होता है । अतएव यह एक अच्छा गुण कहा जा सकता है । दान, सेवा ईश्वर-भक्ति, स्वाध्याय, सत्संग आदि में प्रतिस्पर्धा का भाव हो तो अवांछनीय नहीं वरन् अभिनन्दनीय गिना जा सकता है, मगर ईर्ष्या होना अनुचित हैं। ईर्ष्या में दूसरे के प्रति जलन होती है, द्वेष होता है। इससे आत्मा मलीन वनती है । ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरे को गिराने का षड्यन्त्र रचता रहता है और ऐसी दूषित भावना से वह स्वयं गिर जाता है, दूसरा कदाचित् गिरे कदाचित न भी गिरे।
एक बार तीनों मुनियों ने परस्पर विचार विमर्श किया और वे मिलकर गुरुजी के निकट पहुँचे । यथोचित वन्दन एवं नमस्कार करके उन्होंने
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