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आध्यात्मिक आलोक
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साधना के मूलमन्त्र ।
साधना के भेद -
संसार में प्रायः दो प्रकार की साधना पायी जाती हैं, एक लोक साधना और दूसरी धर्म साधना । अधिकांश मनुष्य अर्थ और कामरूप लोक साधना के उपार्जन में ही अपने बहुमूल्य जीवन का समस्त समय खो देते हैं और उन्हें धर्म साधना के लिये अवकाश ही नहीं रह जाता। ऐसे मनुष्य भौतिकता के भयंकर फेर में पड़कर न केवल अपना अहित करते वरन, समाज, देश और विश्व का भी अहित करते हैं ।
आज के युग में चारों ओर फैले संघर्ष और अशान्ति का मूल कारण अतिशय भौतिक भावना ही है, 'दृश्यमान जगत का कण-कण आज भौतिकता से प्रभावित दिखाई देता है और दीपक लौ पर पतंगे की तरह हर क्षण मानव मन उधर आकृष्ट होता जा रहा है। इससे बहिरंग और अन्तरंग दोनों ही प्रकार की अशान्ति बढ़ती है तथा. मनुष्य दानवता और पशता की ओर बढ़ते हुए निरन्तर मानवता से विमुख होता जा रहा है। धर्म साधना -
धर्म साधना का लक्ष्य इससे बिल्कुल विपरीत है। यह मनुष्य को मानवता से भी ऊंचा उठाकर देवत्व या अमरत्व की ओर अग्रसर करती है। वास्तव में धर्म साधना के बिना मानव जीवन निष्फल, अपूर्ण और निरर्थक प्रतीत होता है। आर्थिक दृष्टि से कोई व्यक्ति चाहे कितना ही सम्पन्न, इन्द्र या कुबेर के समान क्यों न हो, किन्तु उसका आन्तरिक परिष्कार नहीं हुआ हो तो निश्चय ही जीवन अधूरा ही रहेगा
और उसे वास्तविक लौकिक एवं पारलौकिक सुख प्राप्त नहीं होगा।