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आध्यात्मिक आलोक इसी दृष्टिकोण ने अतीतकाल में अनेक राजाओं और महाराजाओं को पुनीत प्रेरणा दी थी। जिसके फलस्वरूप उन्होंने राजसी सुख भोगों को त्याग कर धर्म साधना का पावन मार्ग अपनाया, पर आज का समाज उस पवित्र परम्परा को भूल बैठा और यही कारण है कि उसे लोक साधना और धर्म साधना के बीच सामंजस्य करना कठिन हो रहा है। लोक साधना -
आज के मानव ने धन को साधन न मान कर साध्य बना लिया है। धन संचय को धर्म संघय से भी बढ़कर समझ लिया है । हर जगह उसे धन की याद सताती है और हर तरफ उसे धन का ही मनोरम चित्र दिखाई देता है। और तो क्या ? आज संत दर्शन और संत समागम में भी धन लाभ की कामना की जाती है। किन्तु श्रेणिक सारे धन वैभव को साथ लेकर वीतराग प्रभु को वन्दन करने चला। इसके पीछे भावना थी कि जन-साधारण के मन में धर्म के प्रति विश्वास उत्पन्न हो और वे यह समझें कि धन-वैभव और शाही सत्ता से भी कोई बड़ा है। सत्पुरुषों के पास कोई विशिष्ट वस्तु है जिसको पाने के लिये सत्ताधारी भी लालायित रहते हैं, इस प्रकार धर्म के प्रति जन-मन की श्रद्धा जगाने और सदगुणों के प्रति आदर का भाव उत्पन्न करने को ही महान् मगध सम्राट श्रेणिक- बिम्बसार भी भगवान महावीर स्वामी के चरणों में पहुँचा । जिस प्रकार जलधारा के मध्य में पड़ा हुआ विपन्न व्यक्ति तीर ( किनारा) पाने से प्रसन्न होता है, वैसी ही स्थिति महाप्रभु के चरण, शरण में आकर श्रेणिक की हुई। क्योंकि संतों का दर्शन एवं प्रक्चन संसार सागर से तारने वाला होता है । मुक्ति की प्राप्ति के लिए संत संसार सागर के तीर या तीर्थ के समान माने गये हैं। कारण, जिसके द्वारा तिरा जाय, सचमुच वही तीर्थ है और कामादि विकारों में गुड़ चींटी की तरह सदा लिप्त रहने वाले मनुष्यों को छुटकारा दिलाना ही तीर्थ की वास्तविक उपादेयता है, जो संतों के चरणों में ही पूर्ण होती है। इसीलिये कहा है कि- 'तीर्थभूता हि साधवः' श्रेणिक की साधना -
यद्यपि श्रेणिक अविरत सम्यग्दृष्टि होने से किसी व्रत नियम की साधना नहीं कर सका फिर भी उसकी श्रद्धा शुद्ध एवं स्थिर थी। नवकारसी पचक्खाण भी नहीं करने वाला श्रेणिक संघ भक्ति के लिये सदा तत्पर रहता, क्योंकि साम्राज्य-पद पाकर भी वह धर्म को नहीं भूला था । जिस प्रकार एक चतुर किसान फसल पकने के समय विशाल धन राशि पाकर पेटभर खाता, देता और ऐच्छिक खर्च करते हुए भी वीज को बचाना नहीं भूलता, वैसी ही सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी पुण्य-फल का भोग करते हुए सत्कर्म साधना रूप धर्म बीज को बचाना नहीं भूलता। ठीक ही कहा है: