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________________ [१५] सा विद्या या विमुक्तये द्रव्य कर्म को अपनी ओर आकर्षित करने वाला भाव कर्म है । भावकर्म यदि कमजोर हुआ तो द्रव्यकर्म स्वतः कमजोर हो जायेगा । भावकर्म यदि सज़ोर है और द्रव्य कर्म कमजोर है तो वह उसे भी सबल बना देगा । भावकर्म का रूप-काम क्रोध, माया, मोह आदि है, जो मनुष्य को विविध प्रपन्चों में उलझाए रखता है। श्रावक आनन्द प्रभु के समीप व्रत ग्रहण कर अहिंसा सत्यादि का पालक बन गया। व्रत ग्रहण के पूर्व उसे तत्व अतत्व का ज्ञान नहीं था । वह दुनिया के प्रवाह में तन, धन, परिजन, एवं पुत्र कलत्र आदि को ही सब कुछ मानता था । महावीर स्वामी के पास उसे सदविद्या मिली, प्रकाश मिला और वह वस्तु स्वरूप को समझने लगा। प्राचीन आचार्यों ने परा और अपरा दो विद्याएं मानी हैं । साक्षरता ही विद्या नहीं वह तो एक साधन है । वास्तव में जिस विद्या के द्वारा मनुष्य, हित, अहित, उत्थान और पतन के मार्ग को समझ सके वही सच्ची विद्या है । जैसे-"वेत्ति हिताहितमनया सा विद्या" । दूसरे व्याख्याकार का मत है कि जो आत्मा का बंधन काट दे वही सही विद्या है । जैसे-“सा विद्या या विमुक्तये” । . आज का मनुष्य विद्या को जीविका संचालन का साधन मानता है, निर्वाह का संबल मानता है, यह नितान्त भ्रम है । जीवन निर्वाह के लिए वस्तुएं जुटाना, खाद्य पदार्थ जुटाना, संतति का पालन-पोषण करना, गर्मी-सर्दी वर्षा से बचाव करना आदि बातें तो पशु भी कर लेते हैं । पक्षी बड़ी चतुराई से अपना घोंसला बना लेता है और वह भी ऐसे स्थानों में जहां अन्य प्राणियों का संचार न हो । मगर उनको विद्वान् नहीं कह सकते । पेट पालने का तरीका, हुनर या शिल्प-विद्या विज्ञान है, तथा आत्मतत्व को जानने की विद्या ज्ञान है । ऐसा अमर कोषकार अमरसिंह का कथन है। जैसे कि "मोक्षे धीनिमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः ।"
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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