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आध्यात्मिक आलोक अनुशासित जीवन बिताने का अभ्यास मनुष्य के लिए सुख और कल्याणदायक है । स्वशासन से शासित प्राणी ही विश्व में सर्वप्रिय हो सकता है । उसके लिए शासन व्यवस्था, दंड और निरीक्षण की आवश्यकता ही नहीं रहती।
साधक आनन्द ने नियमों के द्वारा साधना करना आवश्यक समझा । अहिंसा और सत्य का व्रत तो वह ले ही चुका था । अब उसने अचौर्य व्रत को भी स्वीकार किया। क्योंकि इसके बिना जीवन की साधना पूर्ण नहीं बन पाती ।।
चोरी शारीरिक अपराध के साथ-साथ एक भयंकर मानसिक अपराध भी है । सफलता मिलने पर यह अपराध वैसे ही बढ़ता है जैसे घृत पड़ने से आग की ज्वाला। इसके लिए निर्धनता कोई कारण नहीं मानी जा सकती । क्योंकि धनवान लोग भी लालचवश इस रोग के शिकार बने मिलते हैं।
अदत्त ग्रहण (चोरी ) भी स्थूल और सूक्ष्म रूप से दो प्रकार की होती है। जिस वस्तु के लेने में मनुष्य अगल-बगल देखे और दूसरों की आंख बचावे वह बड़ी (स्थूल ) चोरी है । चाहे चोरी का सामान साधारण हो या मूल्यवान् । इस स्थिति की चोरी हीरा और सुई दोनों में समान ही मानी जाती है । सामान्यतया जो वस्तु किसी दूसरे की है, उसकी अनुमति के बिना उस वस्तु को ग्रहण करना ही चोरी है। यही कारण है कि साधु-संत बिना पूछे किसी दूसरे के चबूतरे का उपयोग करना भी उचित नहीं समझते । क्योंकि उनके जीवन में छोटी से छोटी वस्तु की चोरी के भी त्याग का नियम रहता है ।
गृहस्थ जीवन में भी जो व्यक्ति चोरी से विलग रहता है , वह सम्माननीय माना जाता है। सड़क पर नाजायज कब्जा, सरकारी या दूसरे व्यक्ति की भूमि पर अवैधानिक अधिकार आदि भी चोरी का ही रूप है जिसके लिए शासन द्वारा दण्ड दिया जाता है । गाय बैल बकरी आदि पशु धन तथा पुत्र-पुत्री की चोरी सजीव चोरी का नमूना है।
वास्तव में मानव समाज के लिए चोरी एक कलंक है। गृहस्थ को संसार में प्रतिष्ठा का जीवन बिताना है और परलोक बनाना है तो वह चोरी से अवश्य बचे । चोरी करने वाला आत्म-गुणों की हत्या करता है । जिसकी वस्तु ली जाती है, उसके हृदय में हलचल होती है, दुःख होता है जो प्रकारान्तर से हिंसा भी है । भला हिंसा के द्वारा किसी का जीवन कैसे पवित्र माना जा सकता है और उसका परलोक कैसे सुधर सकता है।