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- [ १२ ] साधना की कसौटी : अस्तेय साधना जीवन-निर्माण की जड़ है । इसके बिना कोई भी ऊपर नहीं उठ सकता । मगर इस पथ पर चलने में बड़ी-बड़ी बाधाएँ और कठिनाइयां हैं । एक व्यक्ति जो पहाड़ के जंगली मार्ग से चलता है, जहां एक ओर उत्तुंग शिखर तथा दूसरी ओर गहरी खाई है, पर वह मार्ग उतना कठिन नहीं है जितना कि साधक का मार्ग जिसके चारों ओर रेडियो, खेल-तमाशे, सिनेमा एवं विविध आहार-विहार की वस्तुएं मन को आकृष्ट करने के लिए सजी पड़ी हैं ।
साधना के त्यागमय मार्ग में चलने वाले के लिए लुभावने वातावरण से अपने को बचा लेना बड़ा दुष्कर होता है । राग का आकर्षण त्याग को हर घड़ी दबाता रहता है । इसलिए जब तक कामनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण नहीं होता तब तक साधना निर्विघ्न नहीं हो सकती । साधक शुद्ध हृदय से एक बार जब कामना पर विजय पा लेता है तो फिर वह साधना-पथ से हर्गिज विचलित नहीं हो सकता । वह काम विजयी कुशलतापूर्वक कठिन मार्ग से भी निकल जाता है, क्योंकि आत्म-बल का सम्वल उसे प्राप्त हो गया है जो साधक को पथच्युत नहीं होने देता ।
किसी भी वस्तु को त्यागने से पूर्व संकल्प की दृढ़ता के लिए नियम लेना । आवश्यक माना गया है । नियम लेने से आत्मा में विश्वास और बल प्राप्त होता है। लौकिक दृष्टि से भी नियम का पालना करना आवश्यक है । शासन के उच्च पदाधिकार प्राप्त करने वाले को भी विधानानुसार शपथ लेनी पड़ती है। जब व्यवहार क्षेत्र में भी इसके बिना काम नहीं चलता तो फिर-साधना के क्षेत्र में बिना नियम के काम कैसे चलेगा? नियम न लेने की भावना मन की दुर्बलता या कमजोरी को प्रगट करती है जिससे साधना में सफलता नहीं मिल सकती।
धार्मिक नियमों का लक्ष्य मनुष्यों को स्वानुशासित बनाना है । पर-शासन से मन को पोड़ा पहुँचती है और जीवन भारवत् मालूम पड़ता है । अतः स्वयं ही