SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 457
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 449 आध्यात्मिक आलोक साधना शून्य मनुष्य के प्रत्येक कार्य-कलाप में आसक्ति का विष घुला रहता है, साधनाशील उन्हीं कार्यों को अनासक्त भाव से करता हुआ उनमें वीतरागता का अमृत भर देता है। . अध्यात्म साधना का अर्थात् राग-द्वेष की वृत्ति का परित्याग करके समभाव जागृत करने का महत्व कम नहीं है और यही साधक के जीवन को निर्मल और उच्च बनाने का कारण बनता है । __ आज व्रत्तों की साधना करने वाले थोड़े ही दिखाई देते हैं, इसका कारण यह है कि लोग साधना के महत्व को ठीक तरह समझ नहीं पाए हैं और इसी कारण वे साधना के मार्ग में प्रवृत्त नहीं हो रहे हैं । भूतकाल और वर्तमान काल का इतिहास देखने से यह बात प्रमाणित होती है कि जिसने साधना को जीवन में उतार लिया उसने अपना यह लोक और परलोक सुधार लिया। गृहस्थ आनन्द ने प्रभु महावीर के चरणों में पहुँच कर बारह व्रत अंगीकार किये और अपने जीवन को साधना के मार्ग में लगा दिया । साधारण ऊपरी दृष्टि से भले ही दिखाई न दे कि उसके जीवन में क्या परिवर्तन आया, मगर उसके आन्तरिक जीवन में आध्यात्मिकता की ज्योति जगमगा गई । यही कारण है कि आनन्द सभी अतिचारों का परित्याग करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाता है । जो साधक भोगोपभोग के साधनों के विषय में अपने मन को नियन्त्रित कर लेता है और उनकी सीमा निर्धारित कर लेता है, वह मानसिक सन्तुलन को प्राप्त करके सामायिक की साधना में तत्पर हो जाता है । संयम की साधना के विकसित करना उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। भगवान् महावीर ने आनन्द को लक्ष्य करके, उसके व्रतों की निर्मलता के लिए अतिचारों का निरूपण किया । यद्यपि शास्त्रकार का लक्ष्य आनन्द श्रावक है किन्तु आनन्द के माध्यम से वे संसार के सभी मुमुक्षुओं को प्रेरणा देना चाहते हैं। अतएव वह निरूपण जैसे उस समय आनन्द के लिए हित कर था उसी प्रकार अन्य श्रावकों के लिए भी हित कर था और जैसे उस समय हित कर था वैसे ही आज भी हितकर है । शाश्वत सत्य त्रिकाल-अबाधित होता है । देश और काल की सीमाएं उसे बदल नहीं सकती। भगवान ने कहा-सामायिक व्रत के पांच दूषण हैं । साधक इन दूषणों को . समीचीन रूप में समझे और इनसे बचता रहे । इनका.आचरण न करे ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy