SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [६९] सामायिक वीतराग देव ने आध्यात्मिक साधना का बड़ा महत्व बतलाया और जब कोई भी साधक साधना के महत्व को हृदयंगत करके उसके वास्तविक रूप को अपने जीवन में उतारता है तो उसके जीवन का मोड़ निराला हो जाता है । चाहे उसकी बाह्य प्रवृत्तियां एवं चेष्टाएं बदली हुई प्रतीत न हों तथापि यह निश्चित है कि साधनाशीलता की स्थिति में जो भी कार्य या संसार-व्यवहार किये जाते हैं, उनके पीछे साधक की वृत्ति भिन्न प्रकार की होती है । एक ही प्रकार का कार्य करने वाले दो व्यक्तियों की आन्तरिक वृत्ति में जमीन-आसमान जितना अन्तर हो सकता है। उदाहरण के लिए भोजन क्रिया को लीजिए । एक मनुष्य जिवालोलुप होकर भोजन करता है और दूसरा जितेन्द्रिय पुरुष भी भोजन करता है। ऊपर से भोजन क्रिया दोनों की समान प्रतीत होती है । किन्तु दोनों की आन्तरिक वृत्ति में महान् अन्तर होता है । प्रथम व्यक्ति रसना के सुख के लिए अतिशय-गृद्धिपूर्वक खाता है जबकि जितेन्द्रिय पुरुष लोलुपता को निकट भी न फटकने देकर केवल शरीर-निर्वाह की दृष्टि से भोजन करता है। उसके मन में लेशमात्र भी गृद्धि नहीं होती । इस प्रकार एक-सी प्रवृत्ति में भी वृत्ति की जो भिन्नता होती है, उससे परिणाम में भी महान अन्तर पड़ जाता है । जितेन्द्रिय पुरुष के भोजन का प्रयोजन संयम-धर्म-साधक शरीर का निर्वाह करना मात्र होने से वह कर्म-बन्ध नहीं करता, जबकि रसनालोलुप अपनी गृद्धि के कारण उसे कर्मबन्ध का कारण बना लेता है । यह साधना का ही परिणाम है । यही नहीं, साधना विहीन व्यक्ति रूखा-सूखा भोजन करता हुआ:भी हृदय में विद्यमान लोलुपता के कारण तीव्र कर्म बाँध लेता है जबकि साधना सम्पन्न पुरुष सरस भोजन करता हुआ भी अपनी अनासक्ति के कारण उससे बचा रहता है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy