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________________ 335 आध्यात्मिक आलोक चाहिए जो महारंभ के जनक हैं और जिनसे घोर अशुभ कर्मों का बन्ध होता है । ये कर्मादान जानने के योग्य हैं जिससे आत्मा भारी न बने । कर्मादानों के विषय में आचार्य हरिभद्र, आचार्य अभयदेव और आचार्य हेमचन्द्र आदि ने कर्मादानों की व्याख्या की है और उनके भेदों पर अपने-अपने विचार प्रकट किये हैं । यहां संक्षेप में इन पर विचार करना है (१) इंगाल कम्मे ( अंगार कर्म )- इंगाल का अर्थ है कोयला । कोयला बना कर बेचने का धंधा करने वाला अग्निकाय, वनस्पतिकाय और वायुकाय के जीवों का प्रचुर परिमाण में घात करता है । अन्य त्रस आदि प्राणियों के घात का भी कारण बनता है । इस कार्य से महान हिंसा होती है | कोयला बनाने के लिए लकड़ी का ढेर कर-करके उसमें आग लगानी पड़ती है जैसे कुम्हार मिट्टी के बर्तनों को पकाने के लिए उनका ढेर करता है। प्रायः जीव-जन्तु जहां शीतलता पाते हैं वहां निवास करते हैं, लकड़ी के पास और उसके सहारे भी अनेकानेक जीवन रहते हैं। ऐसी स्थिति में लकड़ी की ढेरी को जलाने से कितने जीवों की हत्या होती है, यह तो केवल भगवान ही जानते हैं । अतएवं कोयला बनाने का धंधा करने वाला महारंभ और त्रस जीवों की हिंसा का भी भागी बनता है । धधे के रूप में इस कार्य को करने से बड़े परिमाण में जीव हिंसा रूप महारंभ करना पड़ता है । अतएव महारंभ का कारण होने से इंगालकम्म ( अंगार कर्म) श्रावक के करने योग्य नहीं है। कुछ आचार्यों ने अंगार कर्म का व्यापक अर्थ लिया है । वे अंगार का अर्थ अग्नि मान कर इसकी व्याख्या करते हैं । अगर यह अर्थ लिया जाय तो लोहकार, स्वर्णकार, हलवाई और भड़भूजे का धंधा भी अंगार कर्म के अन्तर्गत आ जाएगा । यह स्मरण रखना चाहिए कि व्याख्याकारों के विचारों पर देश, काल और वातावरण की छाया भी पड़ती है । जैसा यहां श्रावक के कर्म पर विचार किया गया है, उसी प्रकार मनुस्मृतिकार ने ब्राह्मणों के कर्म बतलाए हैं । ब्राह्मणों के कर्म का निरूपण करने में मनुस्मृतिकार का लक्ष्य यह रहा प्रतीत होता है कि त्याग-साधना-परायण ब्राह्मण अर्थोपार्जन में लीन न बन जाएं। श्रावक का पद भी ऊंचा है। श्रावक को ब्राह्मण भी कहा गया है । साधु की तरह श्रावक भी किसी को शिक्षा दे सके, ऐसा लक्ष्य है। किन्तु शिक्षा वही दे सकता है जो स्वयं त्याग करता है । स्थूल प्राणातिपात का और महारंभ-महापरिग्रह का स्वयं जो त्याग करेगा वही दूसरे को इनके त्याग की प्रेरणा कर सकेगा, अन्यथा--
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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