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[ ५६ ] भोगोपभोगव्रत की विशुद्धि मुक्ति के लिए प्रयाण करने वाले प्रत्येक पुरुष के लिए यह आवश्यक है कि वह जगत् के समस्त प्राणियों के प्रति समभाव धारण करे और उनके सुख-दुःख. को अपने ही सुख-दुःख के समान समझे । त्रस और स्थावर जितने भी प्रकार के जीव हैं, सब के प्रति मैत्रीभाव का धारण करना अध्यात्म-साधना का अनिवार्य अंग है ।
भगवान महावीर स्वामी ने त्रसजीवों के समान स्थावर जीवों की रक्षा करना भी आवश्यक बतलाया है, मगर सभी साधकों की योग्यता और पात्रता समान नहीं होती । हाथी का पलान (बोझ) हाथी ही संभाल सकता है । प्रत्येक स्तर के मनुष्य के लिए यदि समान साधना का विधान किया जाय तो वह सबके लिये समान रुप से अनुकूल नहीं होगा । वह यदि गृहत्यागी अनगार के योग्य होगा तो गृहस्थ उससे लाभ नहीं उठा सकेंगे और उनका जीवन साधना विहीन रह जायगा । अगर वह विधान गृहस्थ के योग्य हुआ तो साधुओं को भी गृहस्थों के समान होकर रहना पड़ेगा । इस प्रकार दोनों तरफ से हानि होगी।
इस स्थिति को सामने रखकर महावीर स्वामी और उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने सभी स्तर के साधकों के लिए भिन्न-भिन्न साधना क्षेत्रों का विधान कर दिया है । । मुनिधर्म में सम्पूर्ण विरति का विधान है और गृहस्थ धर्म में देशविरति का। यहां इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि साधु और गृहस्थ के धर्म में कोई विरोध नहीं है, वस्तुतः एक ही प्रकार के धर्मों के पूर्ण और अपूर्ण दो स्तर हैं । साधु भी अहिंसा का पालन करता है और गृहस्थ भी । किन्तु गृहव्यवहार से निवृत्त होने और भिक्षाजीवी होने के कारण साधु त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा से बच सकता है किन्तु गृहस्थ के लिये यह संभव नहीं है । उसे युद्ध, कृषि, व्यापार
आदि ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिनमें हिंसा अनिवार्य है। अतएव स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग उसके लिए अनिवार्य नहीं रखा गया । त्रस जीवों की हिंसा में भी