SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 302 आध्यात्मिक आलोक बुद्धिमान अपने विचार को औचित्य की तराजू पर तोलता है और तोलतोल कर बोलता है। संघ का सम्मान गुरुजी का मान और बिना विचारे काम न करना या न बोलना चाहिए इस बात का भान उनको था अतः इन सब कारणों से वै मौन रहे । कड़वे घूट को पी गए। ___अगर ज्ञान का प्रकाश पाकर कषाय का शमन कर लिया जाय तो वह रसायन है । दमन करने से भी उसकी भयंकरता कम हो जाती है । जिसका शमन कर दिया जाता है, वह शीघ्र उठ कर खड़ा नहीं होता किन्तु जिसका दमन किया जाता है वह समय की प्रतीक्षा करता है । बन्धुओ ! इस भूमि पर एक से एक बढ़ कर आत्म-विजयी महापुरुष हुए हैं। वे आत्मविजय को ही परम लक्ष्य और चरम विजय मानते थे, क्योंकि आत्मविजय के पश्चात् किसी पर विजय प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता | उनकी पावन प्रेरणा प्रदान . करने वाली प्रशस्तियों और कथाओं से हमारा साहित्य परिपूर्ण है । ये प्रशस्तियां और कथाएं युग-युगान्तर तक मानव-जाति की महान् निधि बनी रहेंगी और उसके समक्ष स्पृहणीय आदर्श उपस्थित करती रहेंगी। जो भव्य जीव आत्माभिमुख होगे, वे उनसे लाभ उठाते रहेंगे और अपना कल्याण करेंगे।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy