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________________ 275 आध्यात्मिक आलोक आत्मा में कोटि-कोटि सूर्यों से भी अधिक जो तेज है, वह कम नहीं हो सकता, सिर्फ आवृत होता है। सहज रूप से निर्मल आत्मा में कोई धब्बा नहीं लगता । फिर भी बाह्य आवरण को चीर कर अन्तरतर को न देख सकने के कारण हम ऐसा अनुभव करते हैं कि आत्मा में मलीनता है। वास्तव में यह हमारा भ्रम है, अज्ञान है। पुद्गल एवं पौद्गलिक पदार्थों की ओर जितनी अधिक आसक्ति एवं रति होगी, उतना ही आन्तरिक शक्ति का भान कम होगा । पाप आचरण के मुख्य दो कारण हैं | कुछ पाप परिग्रह के लिए और कुछ आरम्भ के लिए किये जाते हैं । कुछ पापों में परिग्रह प्रेरक बनता है । परिग्रह आरम्भ का वर्द्धक है । अगर परिग्रह अल्प है और उसके प्रति आसक्ति अल्प है तो उसके लिए आरम्भ भी अल्प होगा। इसके विपरीत यदि परिग्रह बढ़ा और अमर्याद हो गया तो आरम्भ को भी बढ़ा देगा-वह आरम्भ महारम्भ होगा। आन्तरक दृष्टि से अल्पारंभ और महारंभ तथा अल्पपाप और महापाप और ही ढंग से माना गया है । बाह्य दृष्टि से तो ऐसा लगता है कि बड़े कुटुम्ब वाले का आरम्भ महारम्भ है, ग्रामपति का आरम्भ और भी बड़ा है तथा चक्रवर्ती राजा के महारम्भ का तो पूछना ही क्या ! किन्तु एकान्ततः ऐसा समझना समीचीन नहीं है । जहां सम्यक् दृष्टि है, कषाय की तीव्रता नहीं है, मूर्छा ममता में गहराई नहीं है, आसक्ति कम है वहां बाह्य पदार्थों की प्रचुरता में भी महापरिग्रह नहीं होता। व्यावहारिक दृष्टि से आनन्द के यहां महारम्भ था । उसका बड़ा कारोबार था, किन्तु बाहर का रूप बढ़ाचढ़ा होने पर भी जहां दृष्टि में सम्यकत्व और विरतिभाव आ जाता है, वहां आरम्भ का दोष बढ़ाचढ़ा नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जीव में दर्शनमोहनीय का उदय न होने से तथा चरित्रमोहनीय की भी तीव्रतम शक्ति (अनन्तानुबन्धी कषाय) का उदय न रहने से मूर्छा-ममता में उतनी सघनता नहीं होती जितनी मिथ्यादृष्टि में होती है। जहां सुदृष्टि आ जाती है वहां आरम्भ विषयक दृष्टि भी सम्यक् हो जाती है। जहां सुदृष्टि नहीं होती वहां अन्धाधुन्ध आरम्भ होता है । गृहस्थ के लिये आरम्भ के साथ परिग्रह का परिमाण करना भी आवश्यक माना गया है, हिंसा, असत्य, चोरी और कुशील का घटना तब संभव होता है जब परिग्रह पर नियन्त्रण रहे । जब तक परिग्रह पर नियन्त्रण नहीं किया जाता और उसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं की जाती तब तक हिंसा आदि पापों का घटना प्रायः असंभव है। सर्वथा परिग्रह विरमण (त्याग) और परिग्रह परिमाण, ये इस व्रत के दो रूप हैं। परिग्रह परिमाण व्रत का दूसरा नाम इच्छा परिमाण है। कामना अधिक होगी
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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