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________________ 274 आध्यात्मिक आलोक उसके भीतर अमित गुणों का जो खजाना भरा पड़ा है, वह उसको पहचानने में भी असमर्थ हो रहा है । आत्मा में अनन्त, असीम, अव्याबाध आनन्द का समुद्र लहरा रहा है, किन्तु उसे आत्मा मूढ़ बनकर पहचानता भी नहीं है । जब पहचानता ही नहीं हो तो कैसे उसमें अवगाहन कर सकता है ? और कैसे उसे प्राप्त करने का प्रयास कर सकता है ? आत्मिक आनन्द से वंचित होने के कारण ही उसे विषय-जनित आनन्द को अनुभव करने की कामना उत्पन्न होती है । वह पौद्गलिक पदार्थों से सुख पाने की इच्छा करता है । मगर सुख पुद्गल का धर्म नहीं है । पुद्गल के निमित्त से अनुभव में आने वाला सुख भी वास्तव में आत्मा का ही हैआत्मा के सुख-गुण का विकार है। कुत्ता हड्डी चूसता है । हड्डी की रगड़ लगने से उसकी दाड़ों में से रुधिर बहने लगता है, मगर वह भ्रमवश समझता है कि यह रुधिर हड्डी में से प्राप्त हो रहा है । अज्ञानी जीव भी इसी प्रकार के भ्रम में रहता है। वह आत्मा के सुख को पुदगलों से प्राप्त होने वाला सुख मान कर उनका संग्रह करने की अभिलाषा करता है, मगर अन्ततः पुद्गलों के संयोग से उसे दुःख की ही प्राप्ति होती है और विविध प्रकार की वेदनाओं का अनुभव करना पड़ता है । इसी से भव परम्परा चालू रहती है । यह भ्रम ही सब अनर्थों की जड़ है। वह आत्मिक सम्पत्ति से वंचित होने के कारण ही पुद्गलों के प्रति रति धारण करता है। . अनेक जीव ऐसे हैं जो आत्मा और आत्मिक सम्पत्ति पर विश्वास ही नहीं करते । उनमें जो सरल हैं, भोले हैं, वे कदाचित् सन्मार्ग पर आ सकते हैं, परन्तु जो आग्रहशील हैं, उन्हे सुमार्ग पर लाना संभव नहीं है । कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आत्मा में अनन्त ज्ञान की निधि, आनन्द की सम्पदा और चैतन्य के चमत्कार का वर्णन सुनकर आनन्दविभोर हो जाते हैं, मगर वे उसे प्राप्त करने के लिए कुछ भी नहीं पाते। तो जिसे जिनेन्द्र प्ररूपित तत्व का बोध प्राप्त है, उसको ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि जिससे आत्मा की ज्ञान-सुख स्वरूप शक्तियां सर्वथा प्रकट हो जाएं, जागृत हो जाएं और आत्मा में तेज प्रस्फुटित हो जाए । साधना के द्वारा कर्म के आवरण को दूर करना चाहिए। आवरण हटते ही आत्मा का नैसर्गिक तेज उसी प्रकार प्रकट हो जाता है जैसे मेघों के हटने पर सूर्य अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हो जाता सूर्य कितनी ही सघन मेघमाला से मण्डित क्यों न हो, उसकी किरणों की सहज उज्ज्वलता में अन्तर नहीं पड़ता । मेघों के आवरण से ऐसा मलूम पड़ता है कि सूर्य की किरणों की तेजस्विता कम हो गई है, किन्तु यह भ्रम है। इसी प्रकार
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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