SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 247 आध्यात्मिक आलोक राजा की आज्ञा में बल होता है दण्ड का और महात्मा के आदेश में वल होता है ज्ञान और करुणाभाव का । निमित्त अनुकूल मिलने से और मुनि के द्वारा विकीर्ण प्रकाश-पुंज से वेश्या का जीवन आलोकिक हो उठा । उसकी सुप्त चेतना जागृत हो गई । क्या वेश्या और क्या कसाई, सभी मूलतः अन्तर में निर्मल ज्योति-स्वरूप होते हैं । सबमें समान चैतन्य धन विद्यमान है । परन्तु आत्मा की वह अन्तर-ज्योति और चेतना दबी हुई एवं बुझी हुई रहती है। पर जब एक प्रकार की रगड़ उसमें उत्पन्न होती है तो वह आत्मा जागृत हो जाती है । मूल स्वभाव को देखा जाय तो कोई भी आत्मा कसाई, वैश्या या लम्पट नहीं होती, वह शुद्ध, बुद्ध और अनन्त आत्मिक गुणों से समृद्ध है, निष्कलंक है । हीरक कण मूल में उज्ज्वल ही होता है फिर भी उस पर धूल जम जाती है, उसमें गन्दगी आ जाती है । इसी प्रकार शुद्ध चिन्मय आत्मा में जो अशुद्धि आ गई है, वह भी बाहरी है, 'पर' संयोग से है, पुद्गल के निमित्त से आई हुई है। कोषा ने अपने जीवन में परिवर्तन कर डालने का निश्चय किया । वह मुनि के चरणों में गिर पड़ी। मुनि बोले -"अधीर न हो भद्रे ! साधना में अपूर्व क्षमता है । तेरी साधना अतीत की सारी कालिमा धो देगी । आगे कालिमा नहीं लगने देगी । वेश्या, चाण्डाल, चोर, जुआरी और बटमार जैसे सभी पतितों का उद्धार करने वाले पतित पावन भगवान् हैं । मेरु के बराबर पापों की देरी भी भगवान् के नामस्मरण से नष्ट हो जाती है।" कवि विनयचंदजी ने कहा है वेश्या चुगल छिनाल जुआरी, चोर महा वटमारो । जो इत्यादि भजे प्रभु तौने, तो निवृत्ते संसारो ।। पाप पराल को पुंज बन्यो अति, मानो मेरु अकारो । ते तुझ नाम हुतासन सेती, सहजा प्रज्वलत सारो ॥ -पदम प्रभु ! पावन नाम तिहारो। जिस वेश्या का जीवन भोग के कीचड़ में फंसा हुआ था, जिसने भोग के सिवाय योग की बात सोची तक नहीं थी, वही अब मुनि की संगति से आत्मोन्मुख हुई और आत्मा के उद्धार के लिए तत्पर हो गई । आचार्यों ने भी गुणों के दो विभाग किए हैं७) दैवी सम्पत्ति-अहिंसा, अभय, संशुद्धि, सत्य आदि श्रेष्ठ गुण इस कोटि में आते हैं।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy