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________________ • आध्यात्मिक आलोक 147 ___ संसार-सागर के पार जाने वाले यात्री को वाहनापेक्षी न होकर पैदल चलने को भी तैयार रहना चाहिए | कौन जानता है कि किस घड़ी में महाप्रयाण का नगाड़ा बज उठे और एकाकी सुविधाओं से मुख मोड़कर चलना पड़े। संसार की अन्य सारी बातें अनिश्चित और संदिग्ध भी हो सकती हैं किन्तु मृत्यु तो निश्चित है। आए हैं तो जाना पड़ेगा ही, यह अटल सिद्धांत है । अतः आनन्द ने आवश्यक वस्तुओं का परिमाण कर लिया । भोगोपभोग परिमाण में उसने पेय विधि का परिमाण किया जैसे वह लघु भोजन की सामग्रियों में घी आटा से बने हुए पटोलिया के अतिरिक्त कोई पेय वस्तु ग्रहण नहीं करेगा, उसके घर में दूध की कमी नहीं थी साथ ही अर्थ व्यय के डर से भी ऐसा नहीं करता था, क्योंकि वह उस समय का एक जानामाना समृद्धिवान पुरुष था । फिर भी उसके परिमाण का लक्ष्य था कि आत्म-गुणों का व्यय न हो, लालसा की डोर लम्बी न हो तथा आवश्यक वस्तुओं की गुलामी न बढ़े। आज मानव ने अपने जीवन में कृत्रिमता बढ़ाली है और जानबूझकर अपने गले में आवश्यकता की डोरी डाल ली है फलतः इस फंदे से चाहकर भी वह गला छुड़ाने में समर्थ नहीं हो पाता । जाले की मकड़ी की तरह वह अपनी इच्छा के जाल में उलझा रहता है । किन्तु जो व्रत का अंकुश स्वीकार कर लेता है, वह भरपूर साधन होने पर भी सीमित भोजन से स्वस्थ तथा सन्तुष्ट बना रहता है । त्यागमय जीवन वाला स्वादिष्ट तथा रुचिवर्धक वस्तु के मिलने पर भी, उसे ग्रहण नहीं करता । क्योंकि शुभ संकल्प के द्वारा उसने वासना की तरंग को नियंत्रित कर लिया है । इस प्रकार का संयत जीवन, मधुर एवं आनन्ददायक होगा | वहां यह प्रतीत होगा कि आत्मा में अमृत-बिन्दु नहीं किन्तु सिन्धु समाया हुआ है। संयमशील जीवन में विषय-कषाय का विष कहां से आए, वहां तो शील संतोष का अमृत छलकता है, जो आत्मा का निज गुण या स्वभाव है । काम-क्रोधादि विकार तो परगुण हैं, जो आत्मा की शोभा व निर्मलता को मलिन बनाते हैं। मानव निज गुणों को भूलकर ही अशांति पाता है, इस तत्व को भलीभांति समझना ही ज्ञान की प्राप्ति है । पुस्तक पढ़ने मात्र से मनुष्य ज्ञानी नहीं होता । बहुत अधिक वक्तृत्व शक्ति होने या लेखन आदि से चारित्रहीन व्यक्ति ज्ञानवान नहीं माना जाता । इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अनपढ़ है, किन्तु उसे आत्मानुभूति है, समिति और गुप्ति का ज्ञान है तो वह ज्ञानी है और पढ़ा-लिखा भी आत्मानुभूति हीन अज्ञानी है। पठित अज्ञानी का एक नमूना देखिये
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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