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________________ 146 आध्यात्मिक आलोक पशु एकाकी प्राणी है, मनुष्य सामाजिक । पशु किसी से लेन-देन नहीं करता और मात्र अपने बल का भरोसा रखता है । वह अज्ञानता के कारण राह चलतों से । भी टकराता और टकराने की जगह भय-कातर होकर कतरा जाता है । उसे जीवन-निर्माण की न तो कोई कला मालूम है और न मालूम करने की कोई इच्छा ही। . तन-पोषण ही उसकी साधना एवं जीवन का महान लक्ष्य है। मगर मानव एक निराले प्रकार का प्राणी है । उसके सामने सिर्फ अपनापन का ही प्रश्न नहीं, बल्कि कौटुम्बिक सम्बन्ध और सामाजिक जीवन का भी सवाल रहता है । वह शांति के संकल्प के संग चलते हुए भी परिस्थितिवश मन में अशान्ति बसा लेता है । उसके जीवन में परीक्षा और चुनौती के अनेक प्रसंग आते हैं, जो एक से बढ़कर एक लुभावने, मनोरम, कटु तथा उद्वेगवर्द्धक होते हैं । ऐसे प्रसंगों में साधक को पूर्ण सावधानी की जरूरत रहती है । यदि साधक भ्रमश उच्च भावों की आनन्दानुभूति भुलाकर साधना मार्ग से विचलित हो जाय, तो वह साधक पथभ्रष्ट कहा जाएगा । वस्तुतः लड़खड़ाने या डगमगाने का कारण संकल्पबल की कमी है। यदि साधक के मन में बाधाओं से पराजित नहीं होने का निश्चय है, तो वह कभी विचलित नहीं होगा । विपदाओं और बाधाओं से जूझनेवाला ही शूर या साहसी कहा जाता है और संसार में उसकी पूजा होती है तथा इतिहास उसी का सुयशगान करता आवश्यकताओं के अनवरत चक्र में पड़कर मोहवश और अज्ञानतावश मानवं प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ टकराता है किन्तु विविध विघ्नों की परिस्थिति में भी साधक को आगे बढ़कर चलना है और दीपक की बाती की तरह जल-जलकर जंग को जगमग करना है । पशुओं में स्वार्थवश टक्कर होती रहती है। किन्तु मनुष्यों में आवश्यकता की पराधीनता व अज्ञान नहीं है तो वह नहीं टकरायेगा और अपने को पशुता. से बचाए रक्खेगा। ज्ञानवान मनुष्य अशान्ति के कारणों को नियन्त्रित कर लेता है । . आवश्यकता तो प्राणी मात्र को रहती है ।अन्तर इतना ही है कि एक आवश्यकता को बांध लेता है और दूसरा आवश्यकताओं से बंधा रहता है । परिणामत: पहला उतना दुःखी नहीं होता और दूसरा अशांत तथा दुःखी हो जाता है । मूल को नहीं समझने पर संघर्ष होना स्वाभाविक है । मनुष्य आवश्यकता में इतना बेभान बन जाता है कि उसे थोड़े में सन्तोष ही नहीं हो पाता | जरूरत की चीजें अधिक मात्रा में होते हुए भी उसे और की जरूरत बनी रहती है। इस प्रकार जरूरत की ' पूर्ति नित नयी जरूरत का आरम्भ करती रहती है ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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