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गोम्मटसार ।
छादयति स्वकं दोषे नयतः छादयति परमपि दोषेण ।
छादनशीला यस्मात् तस्मात् सा वर्णिता स्त्री ॥ २७३ ॥
अर्थ – जो मिथ्यादर्शन अज्ञान असंयम आदि दोषोंसे अपनेको आच्छादित करै, और मृदु भाषण तिरछी चितवन आदि व्यापार से जो दूसरे पुरुषोंको भी हिंसा अब्रह्म आदि दोषोंसे आच्छादित करै, उसको अच्छादन - स्वभावयुक्त होनेसे स्त्री कहते हैं । भावार्थ - यद्यपि बहुत सी स्त्रियां अपनेको तथा दूसरोंको दोषोंसे आच्छादित नहीं भी करती हैं तब भी बहुलता की अपेक्षा यह निरुक्तिसिद्ध लक्षण किया है ।
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वित्थी व पुमं णउंसओ उहयलिङ्गविदिरित्तो । इट्ठावग्गस माणगवेद णगरुओ कलुसचित्तो ॥ २७४ ॥ नैव स्त्री नैव पुमान् नपुंसक उभयलिङ्गव्यतिरिक्तः । इष्टापाकाग्निसमानकवेदनागुरुकः कलुषचित्तः ॥ २७४ ॥
अर्थ — जो न स्त्री हो और न पुरुष हो ऐसे दोंनों ही लिङ्गोंसे रहित जीवको नपुंसक कहते हैं । इसके अवा ( भट्टा ) में पकती हुई ईंटकी अनिके समान तीव्र कषाय होती है । अत एव इसका चित्त प्रतिसमय कलुषित रहता
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वेदरहित जीवोंको बताते हैं ।
वेदमार्गणा में पांच गाथाओं द्वारा जीवसंख्याका वर्णन करते हैं ।
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तिणकारिसिटुपागग्गिसरिसपरिणामवेदणुम्मुक्का |
अवयवेदा जीवा सगसंभवणंतवरसोक्खा ॥ २७५ ॥ तृणकारीषेष्टपाकाग्निसदृशपरिणामवेदनोन्मुक्ताः ।
अपगतवेदा जीवाः स्वकसम्भवानन्तवर सौख्याः ॥ २७५ ॥
अर्थ – तृणकी अनि कारीष अनि इष्टपाक अनि ( अवाकी अग्नि ) के समान वेद के परिणामोंसे रहित जीवोंको अपगतवेद कहते हैं । ये जीव अपनी आत्मा से ही उत्पन्न होनेवाले अनन्त और सर्वोत्कृष्ट सुखको भोगते हैं ।
For Private And Personal
जोइसियवाणजोणिणितिरिक्खपुरुसा य सण्णिणो जीवा । तत्तेउपम्मलेस्सा संखगुणूणा कमेणेदे ॥ २७६ ॥
ज्योतिष्कवानयोनिनीतिर्यक्पुरुषाश्च संज्ञिनो जीवाः । तत्तेजःपद्मलेश्याः संख्यगुणोनाः क्रमेणैते ॥ २७६ ॥
अर्थ – ज्योतिषी, व्यन्तर, योनिमती तिर्यच, संज्ञी तिर्यंच, संज्ञी तिर्यच तेजोलेश्या - वाले, तथा संज्ञीतिर्यच पद्मलेश्यावाले जीव क्रमसे उत्तरोत्तर संख्यातगुणे संख्यातगुणे
१ स्वं परं वा दोषैः स्त्रीणाति आच्छादयति इति स्त्रीः । २ न स्त्री न पुमानिति नपुंसकः ।