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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । क्रमप्राप्त वेदमार्गणाका निरूपण करते हैं।
पुरिसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंढओ भावे । णामोदयण दवे पाएण समा कहिं विसमा ॥ २७० ॥ ___ पुरुषस्त्रीषण्ढवेदोदयेन पुरुषस्त्रीषण्ढाः भावे ।
नामोदयेन द्रव्ये प्रायेण समाः कचिद् विषमाः ॥ २७० ॥ अर्थ-पुरुष स्त्री और नपुंसक वेदकर्मके उदयसे भावपुरुष भावस्त्री भाव नपुंसक होता है । और नामकर्मके उदयसे द्रव्य पुरुष द्रव्य स्त्री द्रव्य नपुंसक होता है । सो यह भाववेद और द्रव्यवेद प्रायःकरके समान होता है, परन्तु कहीं २ विषम भी होता है। भावार्थ-वेदनामक नोकषायके उदयसे जीवोंके भाववेद होता है, और आङ्गोपाङ्गनामकमके उदयसे द्रव्यवेद होता है । सो ये दोनों ही वेद प्रायःकरके तो समान ही होते हैं, अर्थात् जो भाववेद वही द्रव्यवेद और जो द्रव्यवेद वही भाववेद । परन्तु कहीं २ विषमता भी होजाती है, अर्थात् भाववेद दूसरा और द्रव्यवेद दूसरा ।
वेदस्सुदीरणाए परिणामस्स य हवेज संमोहो। संमोहेण ण जाणदि जीवो हि गुणं व दोष वा ॥ २७१ ॥
वेदस्योदीरणायां परिणामस्य च भवेत् संमोहः।।
संमोहेन न जानाति जीवों हि गुणं वा दोषं वा ॥ २७१ ॥ अर्थ-वेद नोकषायके उदय अथवा उदीरणा होनेसे जीवके परिणामोंमें बड़ा भारी मोह उत्पन्न होता है। और इस मोहके होनेसे यह जीव गुण अथवा दोषका विचार नहीं कर सकता।
पुरुगुणभोगे सेदे करेदि लोयम्मि पुरुगुणं कम्मं । पुरुउत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो ॥ २७२ ॥ ___ पुरुगुणभोगे शेते करोति लोके पुरुगुणं कर्म ।
__ पुरुरुत्तमश्च यस्मात् तस्मात् स वर्णितः पुरुषः ॥ २७२ ॥ अर्थ-उत्कृष्ट गुण अथवा उत्कृष्ट भोगोंका जो खामी हो, अथवा जो लोकमें उत्कृष्टगुणयुक्त कर्मको करै, यद्वा जो स्वयं उत्तम हो उसको पुरुष कहते हैं।
छादयदि सयं दोसे णयदो छाददि परं वि दोसेण ।
छादणसीला जम्हा तम्हा सा वणिया इत्थी॥ २७३॥ १ यद्यपि शीङ् धातुका अर्थ स्वप्न है, तथापि "धातूनामनेकार्थः" इस नियमके अनुसार स्वामी, करना तथा स्थिति अर्थ मानकर पृषोदरादि गणके द्वारा यह शब्द सिद्ध किया गया है। पुरुषु शेते इति पुरुषः इत्यादि । अथवा षोऽन्तकर्मणि इस धातुसे इस शब्दकी सिद्धि समझना चाहिये । पुरु शब्दका अर्थ उत्तम होता है।
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