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________________ ३५८ प्रवचन-सुधा वही अपनी आत्मा और अपने हृदय का आशय है। यदि इन दोनों का आपस में सम्बन्ध हो जाय, तो अन्तरंग में प्रकाश प्रकट हो जाय ! जैसे आपके घर में विजली की ट्यूब लगी हुई है परन्तु जब तक मेन लाइन से उसका कनेक्शन नहीं होता, तब तक घर में प्रकाश नहीं होता है। दोनों का कनेक्शन होने पर ही प्रकाश होता है। जिसके हृदय में भगवद्-वाणी का यह कनेक्शन हो जाता है, वह यह कभी नहीं कहेगा कि मुझे आत्म-ध्यान करने के लिए समय नहीं है । मुझे इस समय सोना है, खाना-पीना है, या वाहीं वाहिर जाना है अथवा अमुक काम करना है ।ये सब बातें अध्यात्म चेतना वाले व्यक्ति के हृदय से निकल जाती हैं । यद्यपि संसार में रहते हुए वह यह सब काम करता अवश्य है, परन्तु जल में कमल के समान उनसे भिन्न ही रहता है । अहो समदृष्टि जोवड़ा, कर कुटुम्ब प्रतिपाल । अंतर गत न्यारो रहै, ज्यों धाय खिलावत वाल । यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव के पास साधन तो वही के वही है, तथापि वह भीतर से यही मानता है कि ये सब अन्य हैं और मैं इन से सर्वथा भिन्न हूं। सव पदार्थों के रहते हुए भी उसके हृदय में उनके लिए मूर्छाभाव नहीं है। जहां पर मूर्छा अर्थात् ममता भाव होता है, वही परिग्रह है। भगवान ने कहा है कि जिन वस्तुओं पर अपनापन नहीं है--ममत्व भाव नहीं है-वहां पर चाहे लोक्य की सम्पदा भी क्यों न हो, हम परिग्रह में नहीं हैं। इसके विपरीत यदि हमारे पास कुछ भी नहीं हो और रहने की टूटी-फूटी छोटी सी कुटिया या झोंपड़ी ही हो परन्तु हमारी आसक्ति और ममता उसके प्रति हे, तो हम परिग्रही ही हैं। - भाइयो, धाय को देखो वह बड़े घराने के बच्चों को नहलाती-धुलाती है खिलाती-पिलाती है और अपने पुत्र के समान उसका सर्व प्रकार से सरक्षण करती है, परन्तु मन में उसके यही भाव रहता है कि यह मेरा नहीं है और मैं इनकी माता नहीं हूं। वह केवल उमके साथ अपना कर्तव्य-पालन करनी है और अपने जीवन-निर्वाह का एक साधनमात्र मानकर उसकी प्रतिपालना करती है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टिजीव अपने कुटुम्ब और परिवार के लोगों को भीतर से अपना नही मानता है, किन्तु अपना व्यावहारिक कर्तव्य का पालन मात्र करता है। अन्तरंग में उसकी किसी के साथ आसक्ति नहीं है। जो जिनवाणी का आगय समझ लेते हैं उनकी ऐमी ही परिणति हो जाती है।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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