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आध्यात्मिक चेतना
देखो-भरत चक्रवर्ती भी आप लोगों के समान ही गृहस्थ थे । उनके पास जितनी प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति थी, उसका करोडवां हिस्सा भी आपके पास नहीं है । फिर भी आपके ये शब्द हमारे कानों में बार-बार आते है कि क्या करें महाराज, घर की ऐसी जिम्मेवारी सिर पर आकर पड़ी है कि उसे निभाये बिना कोई चारा ही नहीं है । परवश होकर उसे निभानी ही पड़ती है। पर मैं पूछता हूं, कि आपका यह कहना सन्य है क्या ? अरे, जिन बालबच्चो के मां-बाप बचपन में ही मर जाते हैं, वे सबके सब क्या मर ही जाते हैं ? अथवा भीख ही जन्म भर मांगते रहते हैं ? भाइयो, यह हमारा अज्ञान है, मिथ्यात्व है, कि हम ऐसा समझते हैं कि हम इनकी प्रतिपालना कर रहे हैं । यदि हम न करें, या न रहें, तो ये भूखे मर जावेंगे ? भाई, सब अपनाअपना भाग्य लेकर आये हैं और उसी के अनुसार सवका पालन-पोषण होता है। किन्तु हम इस रहस्य को नहीं समझते हैं और परकी ममता में ही अपने जीवन के अमूल्य समय को नष्ट कर देते हैं और कहते हैं कि कुटुम्ब की झंझटों के मार हमें समय ही नहीं मिलता है । यदि यह बात सत्य होती, तब तो भरत चक्रवर्ती को समय मिल ही नहीं सकता था 1 परन्तु भरत अपने हृदय के भीतर यह मानते थे कि मैं इनका नहीं और ये मेरे नहीं है । उनकी इस आध्यात्मिक चेतना से ही उन्हें सहज में केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई और अपना अभीप्ट पद प्राप्त कर लिया । परन्तु आप लोग तो केवल बनावटी • बातें करते है क्योकि आप लोगों के ऊपर जिनवाणी का कोई असर नही हुआ है । जिनके हृदयों पर उसका असर हो जाता है, वे किसी भी परिस्थति में क्यों न हों, आत्म-कल्याण करने के लिए, भगवद्-वाणी सुनने के लिए और आत्म-साधना के लिए समय निकाल ही लेते हैं।
स्वानुभव चिंतामणि : जिसके भीतर एक वार आत्म-प्रकाश हो जाता है और आत्म-रस का स्वाद मिल जाता है वह फिर उस रस का पान किये विना रह नहीं सकता है। हृदय की तंत्री जब वजती है तब वह उसमें मग्न हो जाता है। कहा भी है
अनुभव चिन्तामणि रतन, अनुभव है रस कूप ।
अनुभव मार्ग मोक्ष को, अनुभव आत्म स्वरूप ॥ चिन्तामणि रत्न के लिए कहा जाता है कि जिस वस्तु का मन में चिन्तवन करो, उसे वह देता है । परन्तु वह लौकिक वस्तुओ को ही दे सकता है, पारलौकिक स्वर्ग-मोक्ष आदि को नहीं दे सकता है । परन्तु यह स्वानुभवरूपी