________________
प्रबनन-मुधा
की साधना में विघ्न करता है । अतः प्रमाद का त्याग करने के लिए गुरजनों एवं वृन्ट साधुओं की सेवा करना, अज्ञानीजनों से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्तवास करना, सूत्र और उसके अयं का चिन्तन करना तथा मदा सावधान रहना आवश्यक है। प्रमाद के स्थान मद्य मांस, मदिग का सेवन, इन्द्रियों के विषयो मे प्रवृत्ति, कपायल्प परिणित, निद्रा-विकथा, यूत और राग-द्वेपादि हैं । अतः साधु को इन सर्व प्रमाद स्थानों से बचना चाहिए।
मर्मविज्ञान : तेतीसवें अध्ययन का नाम 'कर्मप्रकृति' है। इसमें ज्ञानावरणादि माठौं कों का, उनके १४८ उत्तर भेदों या, उनकी स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध का वर्णन किया गया है । अन्त में बताया गया है कि इन कर्मों के अनुभागों को जानकर ज्ञानी पुरषों को इनके निरोध और क्षय करने में प्रयल करना चाहिए।
चौतीसवां 'लेश्याध्ययन' है। कपायों से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । लेश्या के छह भेद है-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या । इनमे आदि की तीन लेश्याएं अशुभ हैं और अन्तिम तीन लेश्याएं शुभ हैं । इस अध्ययन में इन सब लेश्याओं का वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुप्य के द्वारा विस्तृत वर्णन किया गया है। अन्त मे कहा गया है कि अशुभ लेश्याओ से जीव दुर्गति को जाता है और शुभ लेश्याओं से जीव शुभगति को प्राप्त करता है । __ पैतीसवें अध्ययन का नाम 'अनगार-मागंगति' है । इसमें बतलाया गया है कि मनगार साधु हिंसादि पांचों पापों का त्याग करे, काम-राग बढ़ाने वाले मकानों में रहने की इच्छा न करे, दूसरों से मकान न बनवाए न स्वयं बनावे, भोजन भी न स्वयं बनावे और न दूसरों से बनवावे, क्योंकि इन कार्यों में प्रस और स्थावर कायिक जीवों की हिंसा होती है। साधु को एकान्त, निराबाध, पशु-सभी से असंसक्त और निरवद्य स्थान में रहना चाहिए। सदा उत्तम ध्यान को शुक्लध्यान को ध्यावे और वीतरागता को धारण करे। क्योकि शुक्लध्यानी वीतरागी साधु ही कर्मों से विमुक्त होकर शाश्वत पद को प्राप्त करता है।
छत्तीसवे अध्ययन का नाम 'जीवाजीव-विभक्ति' है। इसमें जीव और अजीव द्रव्य के भेद-प्रभेदों का- उनकी भवस्थिति और कायस्थिति का बहुत विस्तार से विवेचन किया गया है । सिद्धजीवों का वर्णन अवगाहन, लिंग, क्षेत्र,