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धनतेरस का धर्मोपदेश
वेपादि की अपेक्षा से सिद्धिस्थान का भी विवेचन किया गया है । एकेन्द्रिय पृथ्वीकायादि के अनेक भेदों का तथा द्वीन्द्रियादि इसकायों के भी अनेक भेदों का विस्तृत विवेचन इस अध्ययन में किया गया है। सारांश यह है कि जीव और अजीव द्रव्य सम्बन्धी प्राय: सभी ज्ञातव्य वातों का इस अध्ययन में वर्णन है । अन्त में कान्दी, आभियोगी, किल्विपिकी आदि भावनाओं का वर्णन कर उनके त्याग का उपदेश दिया गया है।
आगम-ज्ञान की थाती इस प्रकार उत्तराध्ययन के रूप में भ० महावीरस्वामी ने ज्ञान का यह विशाल भण्डार चतुर्विध सघ को आज के दिन संभलाया था। ज्ञान ही सच्चा धन है, इसी से आज का दिन 'धनतेरस' के नाम से प्रसिद्ध हगा है। इस उत्तराध्ययन सूत्र के स्वाध्याय से कर्मों की निर्जरा होती है और महान् गुणों की प्राप्ति होती है । महापुरुपों के मुख-कमल से निकले हुए इन बचनों का हम सबको आदर करना चाहिए।
भगवान महावीर के ये दिव्य वचन उनके निर्वाण के पश्चात् १० वर्ष तक आचार्य-परम्परा में मौखिक रूप से चलते रहते । जव तात्कालिक महान् आचार्यों ने देखा कि काल के दोप से मनुष्यों की बुद्धि उत्तरोत्तर हीन होती जा रही है, तब उन्होंने तात्कालिक साधुनों का एक सम्मेलन किया और मौखिक वाचनाओं का संकलन कर उन्हें लिपिवद्धं करके पुस्तकारूढ किया । अब यदि कोई कहे कि लिखने और लिखाने की बात तो शास्त्रों में कहीं भी नहीं आई है । तो भाई, इसका उत्तर यह है कि उत्तमकार्य के लिए कहीं मनाई नहीं हैं । थापके पिता ने आपसे कहा कि वेटा, यदि सौं रुपये का मुनाफा मिल जाय तो व्यापार कर लेना। अव यदि आपको सो के स्थान पर हजार रुपये मुनाफे में मिल रहे है तो इसके लिए पिता की आज्ञा ही है, उसके लिये पूछने की क्या आवश्यकता है ? उत्तम कार्य के लिए पूछने की आयश्कता नहीं है । परन्तु यदि सी रुपयों के ६५ होते हैं, या ७५ हो रहे हैं, तब पूछने की आवश्यकता है। इसी प्रकार जिस कार्य में धर्म की और ज्ञान की बढ़वारी हो, उसके लिए भगवान की भाशा ही है। जिन महापुरुपो ने भगवान के वचनों को पुस्तकों के रूप में लिखकर उन्हें सुरक्षित किया है, उन्होंने हम सबका महान उपकार किया है। यदि आज ये शास्त्र न होते तो हमें किस प्रकार श्रावक और साधु के धर्म का बोध होता? और कैसे हम उनके बतलाये मार्ग पर चलते ? कैसे हमे पुण्य-पाप का, हेय-उपादेय का और