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धनतेरस का धर्मोपदेश
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उनतीसवें अध्ययन का नाम 'सम्यकत्त्व पराक्रम' है। इसमें वर्णित ७३ प्रश्नों के उत्तरो-द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करने की दिशा मिलती है और साधक उसे प्राप्त करने के लिए पराक्रम करता है । यह प्रश्नोत्तर रूप एक विस्तृत अध्ययन है, जिसके पठन-पाठन से जिज्ञासु जनो को मुक्तिमार्ग का सम्यक् वोध प्राप्त होता है।
तपोमार्ग तीसवें अध्ययन का नाम 'तपोमार्ग-गति' है। उसमै बतलाया गया है कि राग-द्वेप से उपाजित कर्म का क्षय तप से ही होता है । जिस प्रकार सरोवर कर जल सूर्य के तीक्ष्ण ताप से सूख जाता है, उसी प्रकार आत्मा कर्मरूप जल भी तपस्या की अग्नि से सूख जाता है । तप दो प्रकार का होता है--वहिरंग तप
और अन्तरंग तप । बहिरंग तप के छह भेद हैं---अनशन, ऊनोदरिका, भिक्षाचर्या. रसपरित्याग, कायक्लेश और संलीनता (विविक्त शय्यासनता) । अन्तरंग तप के भी छह भेद है-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग । इन दोनों प्रकार के तपो का वर्णन करके अन्त में कहा गया है कि---
एवं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी ।
से खिप्पं सब्वसंसारा, विप्पमुच्चई पंडिए । जो पडित मुनि दोनों प्रकार के तपों का सम्यक् प्रकार से आचरण करता है, वह शीघ्र ही समस्त संसार से मुक्त हो जाता है। इकतीसवें अध्ययन का नाम 'चरणविधि' है। इसमें बतलाया गया है कि
राग होसे य दो पावे, पावकम्मपवत्तणे ।
जे भिक्खू रूभई निच्चं, से न अच्छई मंडले । राग और द्वेष ये दो पाप कर्म के प्रवर्तक पाप हैं । जो भिक्षु इनको रोकता है, वह संसार में नहीं रहता। किन्तु उसे पाकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
इस अध्ययन में साधुओं के लिए नही आचरण करने योग्य कार्यों के परिहार का और आचरणीय कर्तव्यों को करने का बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है । अन्त में बताया गया है कि जो अपने कर्तव्य मे सदा यतनाशील रहता है, वह संसार से शीन्न मुक्त हो जाता है ।
बत्तीसवें अध्ययन का नाम 'प्रमादस्थान' है । इसमें प्रमाद के कारण और उनके निवारण के उपायो का प्रतिपादन किया गया है। प्रमाद मोक्षमार्ग